केसी त्यागी और बिशन नेहवाल

एक रपट के अनुसार 2050 तक पृथ्वी लगभग दस अरब लोगों का घर होगी। इससे वैश्विक खाद्य मांग पचास फीसद तक बढ़ने का अनुमान है। कृषि योग्य भूमि एक सीमित संसाधन है, और इसका विस्तार अक्सर वनों की कटाई और जैव विविधता के नुकसान की कीमत पर होता है, जो पर्यावरण असंतुलन को बढ़ावा देता है। परिणामस्वरूप बढ़ते तापमान, अनियमित वर्षा स्वरूप और मौसम बदलाव की घटनाओं से फसल की पैदावार को खतरा और खाद्य उत्पादन बाधित होता है। यह जनसंख्या वृद्धि एक जटिल चुनौती है, जो वैश्विक स्तर पर नवीन समाधान और सहयोगात्मक प्रयासों की मांग करती है। इसमें भारत एक महत्त्वपूर्ण खिलाड़ी के रूप में उभर कर सामने आया है, जिसके हाथ में चुनौतियां और अवसर दोनों हैं।

पिछले कुछ दशक में भारत की आर्थिक संरचना में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए

पिछले कुछ दशक में भारत की आर्थिक संरचना में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि की हिस्सेदारी 1947 के 60 फीसद से घटकर पिछले वित्तवर्ष में 15 फीसद हो जाना एक गहन बदलाव का प्रतीक है, जो देश की आर्थिक अस्थिरता को दर्शाता है। पिछले कुछ दशकों के दौरान कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर अस्थिर रही है। 2005-06 में जहां यह दर 5.8 फीसद थी, वहीं 2009-10 में 0.4 फीसद और 2014-15 में -0.2 फीसद थी। यह आंकड़ा देश की आर्थिक रूपरेखा को आकार देने में कृषि की घटती भूमिका की एक स्पष्ट कहानी प्रस्तुत करता है।

कृषि का हिस्सा घटता है तो शहरी-ग्रामीण अंतर बढ़ता जाता

इस बदलाव का एक महत्त्वपूर्ण चालक उद्योगीकरण और शहरीकरण की तीव्र गति रही है। जैसे-जैसे राष्ट्र ने औद्योगिक विकास को अपनाया और शहरी केंद्रों की ओर बड़े पैमाने पर प्रवासन देखा, कृषि का सापेक्ष महत्त्व कम होता गया और आज गांव, समृद्धि के केंद्र बने शहरों के छोटे-छोटे उपनिवेश बन कर रह गए हैं। जैसे-जैसे कृषि का हिस्सा घटता है, शहरी-ग्रामीण अंतर बढ़ता जाता है। एक दौर में हमें अपनी खाद्यान्न जरूरतों के लिए विदेशी आयात पर निर्भर रहना पड़ता था, लेकिन 1960 के दशक में हरित क्रांति के बाद गेहूं और चावल के उत्पादन में जबरदस्त वृद्धि हुई। 2015-16 तक देश के कुल खाद्यान्न उत्पादन में गेहूं और चावल की हिस्सेदारी 78 फीसद हो गई। उत्पादन के उच्च स्तरों के बावजूद भारत में अन्य बड़े उत्पादक देशों की तुलना में कृषि उपज कम है। 1950-51 से खाद्यान्न की उपज में चार गुना वृद्धि हुई है। 2014-15 के दौरान यह 2,071 किलो प्रति हेक्टेयर थी, जबकि वर्ष 2021 में यह 2394 किलो प्रति हेक्टेयर अनुमानित की गई।

22 करोड़ से ज्यादा लोग कुपोषित, 97 करोड़ से ज्यादा लोग नहीं पा रहे आहार

अन्य देशों की तुलना में भारत में कृषि उत्पादकता की वृद्धि दर बहुत धीमी रही है। मसलन, ब्राजील में चावल की उपज 1981 में 1.3 टन प्रति हेक्टेयर थी, जो 2011 में बढ़कर 4.9 टन प्रति हेक्टेयर हो गई। इसके मुकाबले भारत की 2000-01 में उपज 1.901 टन प्रति हेक्टेयर थी और अब इसका आंकड़ा 2021-22 में 2.809 टन तक पहुंचा है। हालांकि अब भी यह विश्व औसत से काफी कम है, जो हमारे लिए चिंता की बात है। इस अवधि में चीन में चावल की उत्पादकता 4.3 टन प्रति हेक्टेयर से बढ़कर 6.7 टन प्रति हेक्टेयर हो गई। उच्च उत्पादन के बावजूद संयुक्त राष्ट्र की रपट के मुताबिक, भारत में 22 करोड़ से ज्यादा लोग कुपोषित हैं, 97 करोड़ से ज्यादा लोगों को पोषणयुक्त आहार नहीं मिल रहा है। ऐसे में बीज, उर्वरक, बिजली और पानी जैसे कृषि उपादानों पर भारी सबसिडी देने के बावजूद, अधिकांश किसान लगातार संकट में हैं और आत्महत्या तथा आंदोलन का कारण बन रहे हैं। उम्मीद की जा रही थी कि अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहे कृषि क्षेत्र को उबारने के लिए बजट में नए प्रावधान और सुधार पेश किए जाएंगे, मगर कृषि क्षेत्र का बजट घटाकर 2022-23 के 1.33 लाख करोड़ के मुकाबले 2023-24 के लिए 1.25 लाख करोड़ रुपए कर दिया गया।

किसानों का बढ़ता कर्ज और आत्महत्याएं भी प्रमुख रूप से जिम्मेदार

2021-22 में कृषि क्षेत्र को कुल बजट का 3.78 फीसद आबंटित किया गया था, जबकि 2022-2023 में यह 3.36 फीसद कर दिया गया, जो कि 2023-2024 आते-आते कुल बजट का 2.78 फीसद ही रह गया। कृषि क्षेत्र में सुस्त वृद्धि के लिए कई कारकों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। अनियमित मौसम स्वरूप, अपर्याप्त सिंचाई सुविधाएं और आपूर्ति शृंखला में चुनौतियों ने सामूहिक रूप से सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि में लगातार योगदान देने की कृषि क्षेत्र की क्षमता में बाधा उत्पन्न की है। इसके अलावा लागत और उत्पादन में लगातार बढ़ता अंतर, वाजिब न्यूनतम समर्थन मूल्य न मिलना, किसानों का बढ़ता कर्ज और आत्महत्याएं भी प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं।

सरकार के तमाम दावों के बावजूद परिवहन और भंडारण सुविधाओं सहित अपर्याप्त बुनियादी ढांचा, कृषि आपूर्ति शृंखला में एक बाधा बना हुआ है। इन कमियों के कारण फसल कटाई के बाद, किसान को स्थानीय व्यापारियों और बिचौलियों को कम दाम पर अपनी फसल बेचने को बाध्य होना पड़ता है। इससे किसानों को न केवल आर्थिक नुकसान होता है, बल्कि क्षेत्र की समग्र विकास क्षमता में बाधा आती है।

सुस्त कृषि क्षेत्र के साथ मजबूत जीडीपी विकास दर के विरोधाभास पर तत्काल ध्यान देने और लक्षित हस्तक्षेप की जरूरत है। इसमें दो राय नहीं कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा के दौर में जहां आधुनिकीकरण से लाभ हुआ है, वहीं यह कृषि की स्थिरता पर भी सवाल उठाता है। तकनीकी प्रगति और पर्यावरण संबंधी चिंताओं के बीच संतुलन बनाना और महत्त्वपूर्ण हो जाता है। सरकार को अपने बजटीय आबंटन में किसानों को प्राथमिकता देनी चाहिए।

कृषि के भीतर विविधीकरण को प्रोत्साहित करना, जैसे बागवानी, डेयरी फार्मिंग और कृषि-प्रसंस्करण को बढ़ावा देना, किसानों के लिए आय के अवसरों को बढ़ा सकता है। कृषि कार्यबल को आधुनिक कौशल से लैस करना अनिवार्य हो गया है। प्रशिक्षण कार्यक्रमों को तकनीकी साक्षरता बढ़ाने और टिकाऊ कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

सिंचाई, भंडारण सुविधाओं और बाजार संपर्क सहित ग्रामीण बुनियादी ढांचे में निवेश, किसानों को सशक्त और कृषि को अधिक व्यावहारिक तथा आकर्षक बना सकता है। पारंपरिक आजीविका के संरक्षण के साथ आधुनिकीकरण को संतुलित करना भारत की आर्थिक यात्रा में परिवर्तनकारी चरण को आगे बढ़ाने की कुंजी है। चुनौती ऐसी नीतियों को तैयार करने की है, जो न केवल बदलते परिदृश्य को स्वीकार करती, बल्कि यह भी सुनिश्चित करती हैं कि आर्थिक विकास का लाभ कृषि क्षेत्र के हर कोने तक पहुंचे। जमीनी स्तर पर सहयोगात्मक प्रयास सतत विकास में योगदान दे सकते हैं।

कृषि आपूर्ति शृंखला में बुनियादी ढांचे की कमियों को दूर करना अत्यावश्यक है। भंडारण सुविधाओं, परिवहन संजाल और सिंचाई प्रणालियों में निवेश से क्षेत्र की उत्पादकता बढ़ सकती और फसल के नुकसान को कम किया जा सकता है। वैश्विक अर्थव्यवस्था के अंतर्संबंध को देखते हुए, अंतरराष्ट्रीय व्यापार में रणनीतिक जुड़ाव महत्त्वपूर्ण हैं, लेकिन यह संबंध स्थानीय किसानों के हितों को ध्यान में रखते हुए हों। निर्यात बाजारों में विविधता लाना और व्यापार संबंधों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करना वैश्विक अनिश्चितताओं के बावजूद आर्थिक स्थिरता में योगदान दे सकता है।

बढ़ती वैश्विक खाद्य मांग को पूरा करने में भारत के सामने एक अवसर और जिम्मेदारी दोनों है। चुनौतियों का बुद्धिमानी से सामना करके, नवाचार को अपनाकर, घरेलू हितों का संरक्षण करते हुए अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा और स्थिरता को प्राथमिकता देकर, भारत इस चुनौतीपूर्ण कार्य को लचीलेपन, सरलता और साझा जिम्मेदारी की जीत में बदल सकता है, जिससे आर्थिक प्रगति की यात्रा में कोई भी पीछे न रहे।