भाजपा के उन्नाव से सांसद साक्षी महाराज को नोटिस भेज कर पार्टी ने पूछा है कि आखिर वे ऐसे बयान देने से बाज क्यों नहीं आ रहे, जो उसके विचारों से मेल नहीं खाते। मगर इतने भर से यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता कि संतोषजनक जवाब न मिल पाने की स्थिति में उनके खिलाफ कड़ी अनुशासनात्मक कार्रवाई भी की जा सकती है। साक्षी महाराज के बयान से यही जाहिर हुआ है कि इस नोटिस को लेकर उन्हें कोई चिंता नहीं है। कुछ दिनों पहले एक सार्वजनिक मंच से साक्षी महाराज ने हिंदू महिलाओं को चार बच्चे पैदा करने की सलाह दी थी। इसके पहले उन्होंने गांधीजी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे को राष्ट्रभक्त करार दिया था।

तब पार्टी ने उनसे दूरी बना ली थी। हालांकि साक्षी अकेले ऐसे नेता नहीं हैं, जो सार्वजनिक मंचों से सांप्रदायिक सौहार्द को छिन्न-भिन्न और समुदाय विशेष को आहत करने वाले भड़काऊ भाषण देते फिर रहे हैं। ऐसा लगता है, मानो भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद, हिंदू जागरण मंच जैसे उसके आनुषंगिक संगठनों के नेताओं के मन में लंबे समय से ये विचार दबे थे और केंद्र में नरेंद्र मोदी की अगुआई में बहुमत से सरकार बनने के बाद निर्भय होकर उन्होंने बोलना शुरू कर दिया है। जगह-जगह हिंदू धर्म के उत्थान के नाम पर आपत्तिजनक बयान दिए जाने लगे हैं। ऐसे में सवाल है कि अगर भाजपा सचमुच सांप्रदायिक सौहार्द के प्रति गंभीर है और पार्टी में अनुशासन बनाए रखना चाहती है तो केवल साक्षी महाराज को कारण बताओ नोटिस क्यों, उन दूसरे नेताओं को लेकर खामोशी क्यों है, जिनके बयानों और गतिविधियों को लेकर संसद में लंबे समय तक गतिरोध बना रहा। उसके चलते सरकार के कई महत्त्वपूर्ण विधेयक बगैर पारित हुए रह गए और उनके लिए अध्यादेश जारी करने पड़ रहे हैं।

यह ठीक है कि भाजपा सिर्फ अपने नेताओं के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई कर सकती है, आरएसएस, विहिप, बजरंग दल आदि के नेताओं पर अंकुश लगाना उसके दायरे में नहीं आता। मगर योगी आदित्यनाथ और साध्वी निरंजन ज्योति के बयानों को लेकर उसे क्या कम किरकिरी झेलनी पड़ी है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने सांसदों से अपील कर चुके हैं कि वे ऐसा कोई बयान न दें, जिससे सरकार के कामकाज पर असर पड़े, वे जो कुछ सार्वजनिक मंचों से बोलें उसमें ध्यान रखें कि किसी भी रूप में ‘लक्ष्मण रेखा’ न पार करें। फिर भी ये नेता बाज नहीं आ रहे तो इसकी वजह सिर्फ उनकी मनमानी नहीं है। दरअसल, भाजपा खुद सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बल पर जनाधार जुटाने का प्रयास करती रही है। चुनावों से पहले भाजपा अध्यक्ष भी कई जगहों पर ऐसे भड़काऊ भाषण दे चुके हैं।

सरकार बनने के बाद पार्टी का वह एजेंडा बिल्कुल किनारे कर दिया गया हो, ऐसा नहीं माना जा सकता। नहीं तो इसका कोई कारण नहीं हो सकता था कि राज्यसभा में लगातार हंगामा होते रहने के बावजूद प्रधानमंत्री धर्मांतरण के मसले पर बयान देने सदन में उपस्थित नहीं हुए। मगर अब स्थितियां वही नहीं हैं, जो चुनाव के पहले थीं। अब पार्टी के कंधों पर देश की नीतिगत जिम्मेदारियों का बोझ है। उसे संवैधानिक मूल्यों की रक्षा का दायित्व निभाना है। उसके जिन सांसदों पर कानून बनाने की जिम्मेदारी है, वही कानून तोड़ते फिरेंगे तो लोकतांत्रिक मूल्यों के सामने संकट पैदा हो जाएगा। भाजपा अध्यक्ष को पार्टी में अनुशासन बनाए रखने के लिए कठोर कदम उठाने से गुरेज क्यों होना चाहिए। उन्हें अपने आनुषंगिक संगठनों से तालमेल बना कर इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने का कोई व्यावहारिक रास्ता निकालने की कोशिश भी करनी चाहिए।

 

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