राज सिंह
सहिष्णुता, समन्वय और समरसता भारतीय संस्कृति की मूल विशेषताएं रही हैं। प्राचीन काल से लेकर आज तक अनेक शासकों, महापुरुषों और संतों ने इस सनातन संस्कृति की धारा को पल्लवित किया है। यदि हम इस संस्कृति की झलक को प्रत्यक्ष रूप से देखना चाहें तो किसी भी भारतीय सिद्ध संत के जीवन चरित्र में इसकी झलक देख सकते हैं। पौराणिक महर्षि वेदव्यास से लेकर शंकराचार्य तक, बुद्ध से लेकर स्वामी रामानुज तक, स्वामी रामानंद से लेकर तुलसी तक, वल्लभाचार्य से लेकर सूरदास तक, स्वामी रामकृष्ण परमहंस से लेकर स्वामी दयानंद तक और स्वामी विवेकानंद से लेकर महर्षि अरविंद घोष तक, सभी का जीवन चरित्र भारतीय संस्कृति का प्रतीक है।
इन्हीं संतों, महापुरुषों की शृंखला में ही एक संत हैं बाबा हाथीराम बैरागी। उन्होंने अपने अनन्य प्रेम और भक्ति से न केवल भगवान विष्णु के विश्वरूप के साक्षात्कार के माध्यम से ईश्वर का साक्षात्कार किया बल्कि महाभारत के अर्जुन और गौतम बुद्ध की सेवा भाव की परंपरा को जारी रखा। साथ ही तिरुपति में अपने मठ के माध्यम से हिंदू धर्म के दर्शन और शिक्षा के प्रसार में भी अभूतपूर्व योगदान दिया। जिसे हाल ही में अपने निर्णय में माननीय न्यायालय ने भी स्वीकार किया है।
बाबा हाथीराम बैरागी का जन्म उना हिमाचल प्रदेश में हुआ था। इनके जीवन का आरंभिक समय गुनाचौर, पंजाब में बीता। प्रारंभ में ये उत्तर भारत के कई मठों में रहे। काफी समय तक नागौर में भी रहे। बचपन से ही भगवान राम के प्रति उनकी श्रद्धा थी। वास्तविक भगवान और सत्य की खोज के लिए इन्होंने अपना घर बचपन में ही छोड़ दिया था और संपूर्ण भारतवर्ष के तीर्थ स्थलों के भ्रमण के लिए निकल पड़े।
सनातन धर्म की परंपरा में ईश्वर की खोज में गुरु का बहुत महत्व रहा है। इसी के अनुरूप बाबा हाथीराम बैरागी ने भी रामानंदी संप्रदाय के सिद्ध संत श्री कृष्ण दास पायोहरी से दीक्षा ग्रहण की। इनकी भक्ति में नवधा भक्ति के सभी रूपों के दर्शन होते हैं।
भगवान के प्रति मित्र भाव की पुष्टि तो आज भी तिरुपति बालाजी के मंदिर के पास बोर्ड पर लिखे हुए इस कथन से होती है:‘श्री स्वामी हाथीरामजी बैरागी 600 वर्ष पूर्व राजस्थान के नागौर जिले के एक गांव से तिरुमाला आए थे। वे वैष्णव ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे और भगवान बालाजी में उनकी अपार भक्ति थी। वे श्रद्धा पूर्वक भगवान का हमेशा ध्यान करते थे। इनकी भक्ति से संतुष्ट होकर भगवान बालाजी हर रात इनके आश्रम में चौपड़ खेलने आते थे। इस बात को झूठ मान कर इस प्रांत के नवाब ने हाथीराम बाबा को एक कमरे में बंद कर गन्ने की ढेरी भरवा कर, एक ही रात में खाने की सजा दी।
बेचारे बाबा जी ने भगवान से रक्षा करने के लिए प्रार्थना की तो हाथी का रूप धारण कर प्रत्यक्ष रूप में भगवान प्रकट हुए और सारा गन्ना जल्दी ही खत्म कर दिया। बाहर से बंद फाटक तोड़कर चिंघाड़ मारते हुए हाथी निकल कर जंगल में अंतर्ध्यान हो गया। ऐसा अलौकिक चमत्कार देखकर सभी बाबा जी से क्षमा मांगने लगे।’
बोर्ड पर लिखी हुई यह घटना न केवल चौपड़ में भगवान के साथ मित्रवत संबंध को अर्थात भगवान के सखा भाव को दर्शाती है बल्कि अपनी रक्षा के लिए अनन्य रूप से भगवान पर निर्भर होने और हाथी के रूप में भगवान के प्रकट होने की घटना वैष्णव संप्रदाय के प्रपत्तिवाद का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
इतना ही नहीं जीवित समाधि में लीन होने की घटना भी मठ में लगे इस बोर्ड से प्रकट होती है जो निर्गुण ब्रह्म साधना के अंतिम सोपान सायुज्यता का प्रतीक है। यह वही सायुज्यता है जिसे आधुनिक काल में मां काली के दर्शन के उपरांत स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने सिद्ध संत तोतापुरी से दीक्षा लेकर प्राप्त की थी।
इस प्रकार बाबा हाथीराम बैरागी का आध्यात्मिक जीवन भारतीय परंपरा के क्रमिक विकास की शुरुआत से लेकर ब्रह्म दर्शन और अंत में समाधि के रूप में क्रमिक विकास और उसके उत्कर्ष का एक आदर्श उदाहरण है।
बाबा हाथीराम बैरागी का आध्यात्मिक जीवन तो उनके जीवन चरित्र का एक पहलू है। दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू है मानव सेवा जिसके बिना कोई भी आध्यात्मिक व्यक्तित्व अधूरा रहता है। इसकी पुष्टि भी हाथीराम मठ पर लगे हुए बोर्ड के इस कथन से होती है। हाथीराम बाबा की सच्ची भक्ति को देखकर नवाब ने हाथीराम बाबा को बालाजी मंदिर का प्रधान अधिकारी बनाकर उनके लिए मंदिर के समीप ही सीताराम जी के मंदिर का निर्माण करवाया।
बाबा हाथीराम जी के समाधि लेने के बाद भी सैकड़ों वर्षो तक अनौपचारिक रूप से श्री हाथीराम बैरागी मठ के महंतों की तिरुपति बालाजी मंदिर के प्रबंधन में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। लेकिन वर्ष 1843 में अंग्रेजों ने विधिवत एवं औपचारिक रूप से तिरुपति बालाजी मंदिर का प्रबंधन मठ के महंतों को सौंप दिया। इस तरह हाथीराम मठ के महंत सेवादास जी को औपचारिक रूप से तिरुपति बालाजी मंदिर का प्रशासक नियुक्त कर दिया गया।
महंत सेवादास और उनके उत्तराधिकारियों सहित 6 महंतों द्वारा मंदिर का प्रबंधन वर्ष 1933 तक चलता रहा। लेकिन इस दौरान ईस्ट इंडिया कंपनी ने मंदिर की संपत्तियों पर अपना कब्जा रखा और इन संपत्तियों से होने वाली, उस समय 45 लाख रुपए की आमदनी को महंतों को नहीं सौंपी। इस तरह अंग्रेजों द्वारा मंदिर के प्रबंधन को बैरागी संतों को सौंपने के पीछे सरकार की नीयत पर ही संदेह होने लगा।
इस काल में हाथीराम मठ के बैरागी संतों ने तिरुपति बालाजी मंदिर का प्रबंधन बहुत ही कुशलतापूर्वक किया और मंदिर में कई प्रकार के मरम्मत एवं पुनर्निर्माण के कार्य किए गए। भक्तों के लिए भी अनेक सुविधाएं उपलब्ध कराई गर्इं। मंदिर में लगे हुए शिलालेख आज भी महंतों द्वारा किए गए कार्य के विषय में बताते हैं। मंदिर का प्रशासन महंत सेवादास के पास वर्ष 1843 से 1864 तक रहा।
उससे पहले मंदिर का प्रबंधन बहुत ही अस्त-व्यस्त अवस्था में था । उन्होंने मंदिर के कई भागों का जीर्णोद्धार कराया। इसके बाद उनके शिष्य महंत धर्मदास मंदिर के प्रशासक बने, जो वर्ष 1880 तक रहे। उन्होंने भी मंदिर में कई निर्माण कार्य कराए।
इस निर्माण में सोने चांदी धातु का खूब प्रयोग हुआ। बैरागी महंतों द्वारा तिरुपति बालाजी मंदिर के प्रशासक के रूप में लगभग 90 वर्ष का यह कार्यकाल संतोषजनक रहा। यद्यपि महंतों में कुछ आपसी विवाद भी रहे और अंग्रेज सरकार द्वारा उन पर कुछ आरोप भी लगाए जाते रहे। वर्ष 1933 में मंदिर का प्रबंधन बैरागी महंतों से ले लिया गया और एक बोर्ड का गठन कर दिया गया।
मठ के पास कई जगह पर हजारों एकड़ बहुमूल्य भूमि है जिसकी कीमत सैकड़ों करोड़ में है। अभिलेखों से पुष्टि होती है कि विजयनगर साम्राज्य के सम्राट राजा कृष्णदेव राय ने हाथीराम मठ को 2000 एकड़ भूमि की संपत्ति दान में दी थी। यह बाबा हाथीराम बैरागी जैसे संतों का ही मानव सेवा का दर्शन था कि यह मठ 15 वीं शताब्दी से लेकर आज तक हिंदू धर्म के प्रचार प्रसार, उसकी सेवाओं शिक्षाओं और दर्शन के विकास के लिए प्रयास कर रहा है।
इसी कारण 19वीं शताब्दी में अंग्रेजों ने भी हाथीराम मठ के महत्व और सामाजिक योगदान को स्वीकार करते हुए तिरुपति बालाजी मंदिर के प्रबंधन की जिम्मेदारी मठ को सौंप दी जो कि 91 वर्षों तक निष्काम भाव से मठ के द्वारा की जाती रही।
सन 1933 में बोर्ड के बनने के बाद मंदिर प्रबंधन की जिम्मेदारी टीटीडी के पास आ गई, लेकिन मठ का सनातन धर्म के प्रचार प्रसार और हिंदू धर्म के दर्शन के विकास में योगदान का कार्य आज भी जारी है। इसे माननीय न्यायालय ने भी अपने एक निर्णय में हाल ही में स्वीकार किया है और राज्य सरकार के हस्तक्षेप को मठ के आंतरिक कार्यों में अस्वीकार कर दिया।
(लेखक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी हैं)