राष्ट्रीय प्रतीकों के प्रति सम्मान सहज नागरिकबोध की अभिव्यक्ति है। मगर विचित्र है कि इसके लिए भी हमारे देश में दंडात्मक प्रावधानों का सहारा लेना पड़ता है। यह बात बचपन से सिखाई जाती है कि जब भी राष्ट्रगान बजे, तो उसके सम्मान में सावधान की मुद्रा में खड़े हो जाना चाहिए। राष्ट्रध्वज को फहराने, उसे उतारने, रखने आदि को लेकर नियम-कायदे बने हुए हैं। किसी भी रूप में राष्ट्रध्वज का अपमान नहीं होना चाहिए। इस नागरिकबोध को पुख्ता करने के लिए जापान आदि अनेक देशों के उदाहरण भी दिए जाते हैं। फिर भी हमारे देश में बहुत सारे लोगों में अपने राष्ट्रीय प्रतीकों के प्रति सम्मान का भाव पैदा नहीं हो पाया है।
श्रीनगर में राष्ट्रगान के दौरान खड़े न होने पर बारह लोगों को निरुद्ध किया गया
इसका ताजा उदाहरण श्रीनगर में राष्ट्रगान के दौरान खड़े न होने पर बारह लोगों को निरुद्ध करने की घटना है। एक कार्यक्रम के समापन अवसर पर, जब वहां के उपराज्यपाल भी उपस्थित थे, राष्ट्रगान बजाया जा रहा था। उस वक्त बारह लोग राष्ट्रगान के सम्मान में खड़े नहीं हुए। इस पर उनके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करनी पड़ी। हालांकि यह पहला और अकेला उदाहरण नहीं है। कुछ साल पहले जब सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने से पहले और खत्म होने के बाद राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य किया गया था, तब बहुत सारे लोगों को जानबूझ कर उसका अपमान करते देखा गया। उस वक्त भी बहुत सारे लोगों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की गई थी।
राष्ट्र के प्रति प्यार तो मन में होना चाहिए
दंड के भय से राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान करना कोई सभ्य समाज की निशानी नहीं माना जा सकता। राष्ट्र के प्रति प्यार तो मन में होना चाहिए। मगर हमारे यहां अक्सर परंपराओं को दकियानूसी साबित करने और उनकी अवहेलना की जो प्रवृत्ति दृढ़ होती गई है, उसमें राष्ट्रीय प्रतीकों का भी अक्सर जानबूझ कर अपमान करते देखा जाता है। श्रीनगर के कार्यक्रम में जो लोग राष्ट्रगान के समय अपनी कुर्सी पर बैठे रहे, ऐसा कतई नहीं माना जा सकता कि उन्हें इस बात की जानकारी नहीं रही होगी कि राष्ट्रगान के सम्मान में उनका क्या व्यवहार होना चाहिए।
दरअसल, कई लोग वैचारिक संकीर्णता की वजह से भी जानबूझ कर राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान करते हैं। कई लोग राष्ट्रगान के सम्मान में खड़ा होना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। जम्मू-कश्मीर में चूंकि ऐसी भावना भरने का प्रयास किया गया है कि वह भारत का हिस्सा नहीं है, वह स्वतंत्र देश है, इसलिए भारतीय राष्ट्रीय प्रतीकों के प्रति उनके मन में सम्मान विकसित ही नहीं हो पाया है। यही वजह है कि आजादी के बाद भी वहां राष्ट्रध्वज फहराने को लेकर हिकारत का भाव ही देखा जाता रहा है। ऐसे में हो सकता है कि जिन लोगों ने राष्ट्रगान बजने पर खड़ा होना जरूरी नहीं समझा वे इसी भावना से ग्रस्त रहे हों।
मगर यह समस्या केवल जम्मू-कश्मीर तक सीमित नहीं है। देश के अनेक सामान्य नागरिकों को भी राष्ट्रीय प्रतीकों के प्रति संवेदनशील नहीं देखा जाता। राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान दरअसल अपने देश के प्रति सम्मान प्रकट करने का संकेत देता है। जो अपने राष्ट्रीय प्रतीकों से प्यार नहीं करते, उनका सम्मान नहीं करते, उनसे कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वे अपने देश, अपने राष्ट्र से भी प्रेम करते होंगे। राष्ट्र प्रथम होना चाहिए। अगर इसके लिए कानूनी प्रावधानों, दंडात्मक कार्रवाइयों का सहारा लेना पड़े, तो लोगों के नागरिकताबोध पर ही सवाल उठता है। अच्छी बात है कि जम्मू-कश्मीर पुलिस ने दोषियों को निरुद्ध किया है, उन्हें गिरफ्तार नहीं किया, मगर इसकी भी नौबत क्यों आनी चाहिए!
