दुनिया के साथ भारत को भी कोरोना के टीके का इंतजार है। अलबत्ता इस बीच पूर्णबंदी का ताला खुलने से आम जीवन की स्वाभाविकता थोड़ी बहाल होनी शुरू हो गई है। वैसे अभी सब कुछ सामान्य होन में वक्त लगेगा, पर हालात अब पहले जैसे भयावह नहीं रहे। इस बीच, सेहत से अलग जो अनुभव और अध्ययन हमारे सामाजिक-पारिवारिक जीवन को लेकर हुए हैं, उसमें उभरे तथ्य चिंता बढ़ाने वाले हैं। ऐसा ही एक तथ्य है कि पूर्णबंदी की सख्ती के दिनों में परिवार के भीतर महिलाओं को कई तरह के उत्पीड़न से गुजरना पड़ा। यही नहीं, दांपत्य संबंध के दरकने के खतरे भी इस दौरान काफी बढ़े। इस तथ्य पर रोशनी इन खुलासों से भी पड़ती है कि पारिवारिक मामलों में परामर्श देने वाली संस्थाओं और वकीलों के यहां इस दौरान वैवाहिक जीवन में तनाव और अलग रहने की मजबूरी के खूब मामले सामने आए।

यह एक रेखांकित करने योग्य तथ्य और सवाल इस कारण भी है कि जब हर तरह की सामाजिक और कारोबारी चहल-पहल बंद थी तो कैसे और क्यों दांपत्य जीवन में लोग कई तरह के शारीरिक-मानसिक दबावों से गुजर रहे थे। आनलाइन कानूनी परामर्श देने वाली कानूनी संस्था से जुड़े शशांक गौतम बताते हैं कि चीन सहित कई देशों में पृथकवास के दौरान महिला उत्पीड़न और तलाक के मामले बढ़े थे। भारत में भी जनता कर्फ्यू के बाद से ऐसे मामलों में तीन गुना तक बढ़ोतरी का आकलन सामने आया है और यह चिंताजनक बात है। जाहिर है कि इसके पीछे एक बड़ी वजह घरेलू हिंसा है। नौकरी और पैसों की चिंता की वजह से लोग तनाव में रहे, खासकर छोटे कोराबारी और उनके कर्मचारी।

गौतम बताते हैं कि कोरोनाकाल में आनलाइन कानूनी सहायता देने वाली संस्थाओं के पास काम का अभाव होना चाहिए था। पर ऐसा नहीं हुआ और लोग घरों से अपनी पारिवारिक समस्या और पति-पत्नी संबंध में बढ़े खटास को लेकर उनसे संपर्क करते रहे। गौतम एक और दिलचस्प हवाला देते हैं। वे बताते हैं कि अपने कार्य को आगे बढ़ाने और अपने प्रचार-प्रसार के लिए उनके जैसे लोग कई ऐसे फर्मों की मदद लेते हैं, जहां से उन्हें क्लाइंट मिलें। इस तरह की सेवाएं देने वाले फर्मों के पास कोरोनाकाल की सख्ती के दौरान आने वाले दस में से 6-7 फोन तलाक या पति-पत्नी मनमुटाव को लेकर आते थे।

शायद ऐसी ही कुछ स्थितियों को समझते हुए कोरोनाकाल को तात्विक विचारकों ने सेहत से ज्यादा सभ्यता संकट बताया है। यानी एक ऐसा संकट जब हम सभ्यता और आचरण की कसौटियों पर नए सिरे से कसे जा रहे हैं। संकट के इस दौर में विवाह संस्था पर अगर खासा दबाव पड़ रहा है तो इसका एक अर्थ तो यह भी है कि दांपत्य संबंधों की नई संरचना में संवेदनशीलता की गुंजाइश काफी कम हो गई है। अहम के टकराव का समाजशास्त्र जब दांपत्य की लाली को भी स्याह करने लग जाए तो मानना चाहिए कि हम एक ऐसी राह पर बढ़ रहे हैं, जहां संबंधों के निर्वाह से ज्यादा जरूरी है अपनी खुदगर्जी पर कामय रहना। अलबत्ता संबंध और परिवार की रचना में आर्थिक स्थायित्व की भी एक बड़ी भूमिका है। लिहाजा, जब-जब यह स्थायित्व कमजोर पड़ा है, इसका असर पारिवारिक संबंधों पर भी देखने को मिला है। कोरोनाकाल इसकी नई मिसाल है।

सिंदूरी साथ एक लोक यथार्थ
शादी के टूटने को लेकर भारतीय समाज आज भी सहज नहीं है। जैसे ही किसी परिवार में दांपत्य कलह की बात शुरू होती है तो आमतौर पर उसे बचाने की ही कोशिश होती है। वैसे इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि देश में आज भी शादी को बचाने के लिए खासतौर पर महिलाओं पर कई ऐसे दबाव दिए जाते हैं, जिन्हें सभ्य समाज में स्वीकार करना महिला उत्पीड़न के एक स्याह पक्ष से आंखें मूंदना है। हालांकि जैसे-जैसे भारतीय समाज बदलाव और विकास के उत्तर आधुनिक चरण में प्रवेश कर रहा है, वैवाहिक संबंध को देखने-समझने और निबाहने की नई तार्किक जमीन तैयार हो रही है।

बहरहाल, आंकड़ों के लिहाज से भारतीय समाज की स्थिति इस लिहाज से तो अच्छी मानी ही जा सकती है कि बाकी दुनिया के मुकाबले यहां सबसे कम शादियां टूटती हैं। ‘यूनीफाइड लॉयर्स’ की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक भारत में सिर्फ एक फीसद शादियां टूटती हैं और ये दुनिया के सबसे कम तलाक के दर वाले देशों में से एक है। जहां तलाक की दर सबसे ज्यादा है तो उनमें कई विकसित देश शामिल हैं। स्पेन में 65, फ्रांस में 55 तो अमेरिका में 46 फीसद शदियां समय से पहले टूट जाती हैं। वैसे यह आंकड़ा जिस देश का सबसे भयावह है वह है लक्जमबर्ग। यहां महज 13 फीसद शादियां ही टिक पाती हैं।