राष्ट्रपति भवन… भारत की पहचान, आजादी का प्रतीक और अंग्रेजों द्वारा बनवाई गई एक अद्भुत इमारत। दिल्ली की सड़कों से जब भी गुजरते हैं और अगर रायसीना पहाड़ियों की ओर मुड़ जाएं तो बिना राष्ट्रपति भवन को देखे कोई नहीं जाता। इस इमारत की भव्यता ही ऐसी है 95 साल बाद भी लोग इसे देख हैरत में पड़ जाते हैं। आज उसी राष्ट्रपति भवन की दिलचस्प कहानी-

राष्ट्रपति भवन की कहानी 1911 में शुरू होती है। ये वो वक्त था जब अंग्रेजों ने फैसला किया कि भारत की राजधानी कोलकाता नहीं दिल्ली होनी चाहिए। अब दिल्ली आने का फैसला तो कर लिया लेकिन अंग्रेजों के मन में एक बड़ी दुविधा थी। दिल्ली में वायसराय कहां पर रहेंगे, इसका फैसला नहीं हो पा रहा था। काफी रिसर्च करने के बाद दिल्ली की रायसीना की पहाड़ियों को चुना गया। फैसला हुआ कि वहां पर राष्ट्रपति भवन का निर्माण किया जाएगा। ये समझना जरूरी है कि उस समय उसे राष्ट्रपति भवन नहीं कहा जाता था बल्कि अंग्रेज तो सिर्फ एक भव्य इमारत का निर्माण करना चाहते थे।

अब जब इमारत बनाने का फैसला ले लिया गया, इसका नक्शा बनाने की तैयारी शुरू हुई। ये बड़ी जिम्मेदारी उस समय के मशहूर आर्किटेक्ट एडमिन लुटियंस को दी गई। बताया जाता है कि 14 जून 1912 को उनकी तरफ से अंग्रेजी प्रशासन को उस भव्य इमारत का एक सटीक नक्शा भेजा गया। वो नक्शा देख अंग्रेज खासा उत्साहित हो गए और तुरंत उसे हरी झंडी दिखा दी गई। इसके बाद काम शुरू हुआ भूमि अधिकरण का यानी कि जहां पर राष्ट्रपति भवन का निर्माण होना था, वहां पर बड़ी जमीन की आवश्यकता थी। ऐसे में 1911 से 1916 के बीच में मालचा गांव के 300 लोगों से करीब 4000 हेक्टेयर की जमीन ली गई।

अब अंग्रेजी हुकूमत चाहती थी कि 4 साल के अंदर में उनकी ये भव्य इमारत बनकर तैयार हो जाए। लेकिन क्योंकि इमारत इतनी भव्य थी, इसके बनने में भी उतना ही समय लगा। जिस कार्य को 4 साल में पूरा होना चाहिए था, वो 1929 में जाकर संपूर्ण हो पाया यानी कि आज के राष्ट्रपति भवन को बनाने में पूरे 17 साल लग गए। 1912 में ये कार्य शुरू हुआ और 1929 में संपन्न। बताया जाता है इतने साल पहले उस भव्य इमारत को बनाने में एक करोड़ 40 लख रुपए लग गए थे। खास बात ये रही उस इमारत को बनाने में 70 करोड़ ईटों से लेकर 30 लाख पत्थरों का इस्तेमाल हुआ। वहां भी 29000 से ज्यादा मजदूरों का खून पसीना उस राष्ट्रपति भवन को बनाने में लग गया। जिन 340 कमरों को आज देखकर लोग हैरत में पड़ जाते हैं, इतने साल पहले दिन रात मेहनत कर इन्हीं मजदूरों ने उन 340 कमरों का निर्माण किया था।

1929 में जब राष्ट्रपति भवन बनकर तैयार हो गया तब अंग्रेजों के आखिरी वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन अपनी पत्नी के साथ वहां रहने पहुंच गए थे। अब जैसी उम्मीद थी, माउंटबेटन उस इमारत की भव्यता देखकर दंग रह गए। सिर्फ एक हफ्ते तक वे उस इमारत का भ्रमण करते रहे। अलग-अलग जगह को उन्होंने काफी ध्यान से देखा, समझा और उसके बाद भारत की आजादी तक फिर वहीं पर रहने लगे। उनकी जितनी भी अहम मीटिंग होती थीं, जब भी नेताओं के साथ मंथन करना होता था, राष्ट्रपति भवन नया ठिकाना बन चुका था।

जब भारत आजाद हो गया, उसके बाद भी राष्ट्रपति भवन ही कई अहम फैसलों का गवाह बना। बताया जाता है देश के जो पहले गवर्नर जनरल थे चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, उनको राष्ट्रपति भवन में रहने में कई दिक्कतों का सामना करना पड़ा। सादगी भरा जीवन जीने वाले राजगोपालाचारी को राष्ट्रपति भवन की वो शानो शौकत रास नहीं आई। इसी वजह से वे भवन के गेस्ट रूम में रहा करते थे। इसके बाद 26 जनवरी 1950 को जब भारत एक गणतंत्र बन गया और देश के पहले राष्ट्रपति के रूप में राजेंद्र प्रसाद ने शपथ ली, तब उन्हें भी इस गवर्नर हाउस में रहने का मौका मिला। उनके राष्ट्रपति बनने के बाद ही गवर्नमेंट हाउस का नाम बदलकर राष्ट्रपति भवन रख दिया गया।

अब राष्ट्रपति भवन की खासियतों की बात करें तो इसके निर्माण में भारत की ही प्राचीन शैली का भरपूर इस्तेमाल किया गया है। इसमें मुगल शैली की झलक दिख जाएगी, पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव भी रहेगा और भारत की प्राचीन विरासत का खूबसूरत नमूना भी इसी राष्ट्रपति भवन में देखने को मिलेगा। बड़ी बात ये है कि इटली के क्यूरनल पैलेस के बाद ये दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा निवास स्थान बताया जाता है। वर्तमान में राष्ट्रपति भवन में 750 कर्मचारी काम करते हैं, वहां भी 245 तो अकेले राष्ट्रपति के सचिवालय में कार्यरत रहते हैं।