इस शोध को लेकर दुनिया भर में बहस छिड़ गई है। हालांकि, शोध में जुटा वैज्ञानिकों का समूह सूर्य को मद्धम कर देने को ‘ग्लोबल वार्मिंग’ का हल मान रहा है। दूसरी ओर, वैज्ञानिक बिरादरी में ही काफी लोग इससे असहमत हैं। जिन देशों में यह शोध हो रहा है उनमें नाइजीरिया और चिली के अलावा भारत भी शामिल है।
‘ग्लोबल वार्मिंग’ को रोकने के एक तरीके के रूप में कुछ वैज्ञानिक धूप की तेजी को कम करने की तकनीक पर काम कर रहे हैं और उन्हें बड़ा निवेश मिला है। बहुत से अन्य वैज्ञानिक इस तरीके को खतरनाक मानते हैं और कहते हैं कि यह बारूदी सुरंग पर पांव रखने जैसा है, इसलिए इस शोध को फौरन रोका जाना चाहिए।
इस शोध को ‘सोलर जियो इंजीनियरिंग’ कहा जाता है। सैद्धांतिक रूप से इसमें वैज्ञानिक विमानों या विशाल गुब्बारों के जरिए स्ट्रैटोस्फीयर यानी वायुमंडल की ऊपर परत पर सल्फर का छिड़काव करने की योजना पर काम कर रहे हैं। सल्फर सूर्य की किरणों को परावर्तित कर देगा। इस तरह धरती तक धूप उतनी तेज नहीं पहुंचेगी कि तापमान जरूरत से ज्यादा बढ़ सके।
आगाह किए जाने के बावजूद इस तकनीक पर शोध लगातार जारी है। पिछले सप्ताह को ब्रिटेन की एक समाजसेवी संस्था डिग्रीज इनिशिएटिव ने एलान किया कि 15 देशों में सोलर इंजीनियरिंग पर हो रहे शोध के लिए नौ लाख डालर यानी करीब साढ़े सात करोड़ रुपए उपलब्ध कराए जाएंगे। जिन देशों में यह शोध हो रहा है उनमें नाइजीरिया और चिली के अलावा भारत भी शामिल है।
संस्था ने कहा कि यह धन सोलर इंजीनियरिंग के मानसून से लेकर तूफानों और जैव विविधिता पर होने वाले प्रभावों का अध्ययन करने के लिए कंप्यूटर माडलिंग तैयार करने के लिए दिया जा रहा है। सोलर इंजीनियरिंग को सोलर रेडिएशन माडिफिकेशन भी कहा जाता है। इससे पहले 2018 में भी इस संस्था ने शोध के लिए दस देशों के वैज्ञानिकों को इतना ही धन मिला था। उस वक्त शोध का मकसद दक्षिण अफ्रीका में बढ़ते सूखे या फिलीपींस में चावल की खेती को बढ़ते खतरों का अध्ययन करने के लिए दिया गया था।
अब तक सोलर इंजीनियरिंग संबंधी शोध पर अमीर देशों का ज्यादा अधिकार रहा है और हार्वर्ड व आक्सफर्ड जैसे विश्वविद्यालय इस शोध के अगुआ रहे हैं। ‘डिग्रीज इनिशिएटिव’ के सीईओ और संस्थापक एंडी पार्कर ने कहा, संस्था द्वारा उपलब्ध कराया जा रहा धन एक साझी परियोजना के लिए है, जिसे ‘डिग्रीज इनिशिएटिव’, ‘ओपन फिलैंथ्रोपी’ व ‘वर्ल्ड अकैडमी आफ साइंसेज’ मिलकर मिलकर चला रहे हैं।
इस तकनीक को लेकर वैज्ञानिकों के एक वर्ग में संदेह जताया जा रहा है। आलोचकों के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन से निपटने का एक संभावित रास्ता जीवाश्म र्इंधन कंपनियों को कुछ ना करने का बहाना दे सकता है। साथ ही, इस तकनीक से मौसम का चक्र बिगड़ सकता है, जिससे गरीब देशों में गरीबी और बढ़ सकती है।
नाइजीरिया की ‘आलेक्स एक्वेमे फेडरल यूनिवर्सिटी में सेंटर फार क्लाइमेट चेंज एंड डेवेलपमेंट’ के निदेशक चुकवुमेरिये ओकेरेके के मुताबिक, मैं ऐसी सौ चीजें बता सकता हूं जो ग्लोबल वार्मिंग को कम कर सकती हैं और सोलर इंजीनियरिंग उनमें से एक नहीं होगी। वे कहते हैं कि पिछले साल जब जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों की 48 पेज की रिपोर्ट आई तो उन लोगों ने एसआरएम का जिक्र तक नहीं किया।
एसआरएम के समर्थक कहते हैं कि यह तकनीक ज्वालामुखियों से प्रेरित है। मिसाल के तौर पर 1991 में फिलीपींस में माउंट पिन्याटूबो नाम का ज्वालामुखी फटा था तो आसमान में बिखरी राख ने वैश्विक तापमान को एक साल तक काबू में रखा था। पिछले आठ साल में इतिहास के सबसे गर्म साल गुजरे हैं और औसत तापमान ओद्यौगिक क्रांति से पहले की तुलना में 1.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। 2015 के पैरिस समझौते के तहत इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा ना बढ़ने देने की बात कह गई थी। इसलिए वैज्ञानिक तापमान बढ़ने से रोकने के लिए जल्द से जल्द कोई तरीका खोजने पर जोर दे रहे हैं।
