जयप्रकाश त्रिपाठी
आंखों के सामने हकीकत चाहे जैसी हो, मगर नीति आयोग के दावों पर यकीन करें तो हमारे देश के 13.5 करोड़ से अधिक लोग अब गरीब नहीं रहे। गरीबी बढ़ने की रफ्तार 47 से घटकर 44 फीसद रह गई है। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, ओड़ीशा और राजस्थान में गरीबों की संख्या तेजी से कम हो रही है। आकड़ों में यह गिरावट सबसे ज्यादा ग्रामीण क्षेत्रों में चित्रित की गई है, जिसके मुताबिक, गरीबी 32.59 फीसद से घटकर 19.28 फीसद हो गई है और यह शहरों में भी 8.65 फीसद से घटकर 5.27 फीसद हो गई है! हालांकि रिपोर्ट में यह भी स्वीकार किया गया है कि देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा फिलहाल, पोषण, स्वास्थ्य-शिक्षा आदि बुनियादी जरूरतों के लिए जूझ रहा है।
वस्तुस्थितियों के दूसरे पहलू पर ‘आक्सफैम’ की इसी साल (जनवरी 2023 में) आई रिपोर्ट तो कुछ और ही हकीकत बयान कर रही है। यह रिपोर्ट बताती है कि इस समय पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा गरीब भारत में हैं, जिनमें से 22.89 करोड़ लोग तो असहनीय गरीबी में जी रहे हैं, जबकि इस बीच देश में अरबपतियों की संख्या में 62.7451 फीसद इजाफा हो गया है। है न अचरज की बात।
एक साथ, गरीबी घटने और अमीरों की संख्या बढ़ने के इस विषम अनुपात पर गहराई से नजर दौड़ाएं तो कुछ और ही सच्चाई सामने आती है। विश्वबैंक की ‘पावर्टी ऐंड शेयर्ड प्रास्पैरिटी-2022’ रपट के अनुसार, बीते दो वर्षों में देश के 5.6 करोड़ लोग अपनी निम्न मध्यवर्ग की हैसियत से फिसल कर गरीबी रेखा के नीचे पहुंच गए हैं। दुनिया भर में जो गरीबों की कुल संख्या 7.1 करोड़ बढ़ी है, उनमें से 80 फीसद तो अकेले भारत के हैं।
भारत की अत्यंत विषमतापूर्ण अर्थव्यवस्था का आकलन करने वाली ‘विश्व असमानता रिपोर्ट’ बताती है कि देश के कमजोर, वंचित परिवारों की नई पीढ़ी का भविष्य तेजी से असुरक्षित हो रहा है। शीर्ष दस फीसद प्रभुवर्ग राष्ट्रीय आय का 57 फीसद हजम कर रहा है और इस दस फीसद आबादी के शीर्ष एक फीसद अमीर 22 फीसद आय के मालिक बन चुके हैं, जिससे राष्ट्रीय आय में निचले स्तर के 50 फीसद की हिस्सेदारी सिमट कर सिर्फ 13 फीसद रह गई है। ऐसे हालात के लिए कई एक बुनियादी कारण हैं, जिन्हे यहां रेखांकित करना जरूरी लगता है। नीम चढ़े करेले की तरह भयावह महंगाई और बेकाबू बेरोजगारी इस हालात के लिए खाद-पानी का काम कर रही हैं।
पिछले कुछ दशक से आंकड़ों में दावे चाहे जो भी किए जा रहे हों, देश में बसावटों का जनतांत्रिक ढांचा गांव और शहर, दो इकाइयों में विभाजित है, जिनके बीच, अपनी आधारभूत संरचनाओं में भारी अंतर और हठधर्मी योजनाओं, आर्थिक उपक्रमों में अदूरदर्शिता-अन्यायसंगति के चलते, सभ्य-असभ्य विकास और पिछड़ेपन की पंचमेल खिचड़ी पक रही है।
कई ताजा अध्ययन इसके साक्ष्य हैं कि श्रमबल, जमीन, पशुधन, अन्न, दूध, फल, सब्जियों आदि के लिए गांवों पर निर्भर शहरी अनुत्पादक तंत्र अथाह पूंजी की संगति में कारपोरेट महाशक्तियों की सहमति और साझेदारी तथा श्रम कानूनों की उदासीनता से व्यवस्थाओं के नाम पर, जीवन यापन के मुख्य आधार गांवों के उत्पादक वर्गों को नियंत्रित-संचालित कर रहा है, जिसकी रफ्तार बाजार पोषित आधुनिक विकास-प्रबंधन ने और तेज कर दी है, जिसकी कीमत हमारी जीवनदायिनी सुजला-सफला नदियां, दुर्गम पर्वतीय और बीहड़ जंगल क्षेत्रों तक चुकाने को विवश हैं। पूरा परिदृश्य किसी अगम-अथाह गह्वर में घिर चुका है।
कुछ पल के लिए मौजूदा चमक-दमक को आंखों से ओझल कर देखें तो इन असहनीय हालात में अभावग्रस्त लोगों की संख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। विस्थापन के लिए अभिशप्त गांव के गांव उजाड़खंड होते जा रहे हैं। एक झटके में ऐसी आबादी की तादाद 19 करोड़ से बढ़कर 35 करोड़ तक पहुंच चुकी है। कथित विकास के नाम पर जारी जल-जंगल-जमीन को लीलती जा रही यह विनाशलीला पिछले एक साल (2022) में ही, आर्थिक अभावों के चलते पांच वर्ष से कम आयु वर्ग के 65 फीसद बच्चों को भूख की नींद सुला चुकी है।
देश के सत्तर करोड़ लोगों की संपत्ति से ज्यादा पूंजी इक्कीस अमीरों के हिस्से हो चुकी है
एक ओर अपरिमित विकास के दावे हैं, दूसरी ओर निम्न-आय वाले परिवारों के ज्यादातर बच्चे आज भी स्मार्टफोन, टैबलेट, इंटरनेट जैसे शिक्षा के सुविधाजनक तकनीकी माध्यमों से वंचित हैं। दोहरे मानदंडों वाली इसी पटकथा के एक और पन्ने पर दर्ज है, कर्मचारियों की तनख्वाह में 3.19 फीसद की कटौती और सीईओ के वेतन में नौ फीसद तक इजाफा। जबकि अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की अनुशंसा है कि न्यूनतम वेतन सीमा इस तरह निर्धारित की जाए, जिससे श्रमिक परिवारों की आवश्यक जरूरतें बाधित न हों।
इसी असमानता-विषमता की कोख से यह सच्चाई भी पैदा हुई है कि देश के सत्तर करोड़ लोगों की संपत्ति से ज्यादा पूंजी इक्कीस अमीरों के हिस्से हो चुकी है। गुजरे दो वर्षों में ही उनकी कुल संपत्ति में 121 फीसद के इजाफे के साथ, उनकी संख्या भी 101 से बढ़कर 166 हो चुकी है। बेतरतीब विकास, नवशहरीकरण की अवधारणाओं और आधुनिक बाजारों ने सूचना माध्यमों के जरिए ग्रामस्वराज्य के सपनों को तिरोहित-सा कर दिया है। इधर, सहजीवी ताना-बाना भी तेजी से तितर-बितर हुआ है, जिसका प्रभाव गहरे तक, खासकर ग्राम्य परिवेश के रिश्ते-नातों को अनुत्पादक बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा है। समृद्धि के सपने कौन देखे, मनरेगा तक की कमर भी टूटी पड़ी है।
खाद्यान्न के भारी आयात ने गांवों के पूरे फसली ढांचे को ही चरमरा कर रख दिया
गौरतलब है कि गांवों, पिछड़े इलाकों से लगातार पलायन बढ़ता जा रहा है, दूसरी ओर मालदार वर्गों के लोग देश के महानगरों से उजड़ कर विदेशों में बसते जा रहे हैं। यह स्थिति बताती है कि हमारी विकास योजनाओं में निश्चित ही अदूरदर्शिता है। ऐसी स्थितियों में गांवों की आर्थिक आत्मनिर्भरता को पंख कैसे लगें, प्रश्न स्वाभाविक है। ‘कृषि उत्पाद नीति’ के तहत खाद्यान्न के भारी आयात ने गांवों के पूरे फसली ढांचे को ही चरमरा कर रख दिया है।
सोचिए कि जब पचास लाख टन दाल हम विदेशों से मंगा लेंगे, तो बुंदेलखंड की ‘दालों के कटोरे’ की कैसी गत बन जाएगी। लगभग 130 लाख टन खाने का तेल भी विदेशों से आयात हो रहा है। आयात बिल देश के कुल कृषि बजट से तीन गुना ज्यादा हो चुका है। बीते एक दशक में ही आयात बिल डेढ़ सौ फीसद तक बढ़ गया है। यह पूरी व्यूह रचना कारपोरेट घरनों और शहरों को समृद्ध बनाने के लिए गांवों के सीने पर मूंग दल रही है। ऐसे में गरीबी, भुखमरी गांवों में बढ़ेगी नहीं तो और क्या होगा!
यह किसे पलट कर सोचने की फुर्सत है या यह सवाल भी क्यों नहीं निर्णायक लगना चाहिए कि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण में देश के 51 फीसद किसान क्यों खेती छोड़ना चाहते हैं? क्या ग्राम स्वराज्य की अवधारणा गलत थी, जो किसानों को लूटने के लिए गोदामों में भंडारण की सार्वजनिक वितरण प्रणाली लागू की गई। आज कृषि नीतियां वे अधिकारी बनाते हैं, जिनके पास मात्र कागजी कृषि समझ है।
जय जवान जय किसान का नारा तो कब का पीला पड़ चुका है। तभी तो देश के नए अरबपतियों में बत्तीस स्वास्थ्य क्षेत्रों के, सात दवा उद्योग तक के शुमार हो जाते हैं, लेकिन कोई एक भी कृषक शामिल नहीं हो पाता है। इसीलिए, कभी हमारी समृद्ध संस्कृति के प्रतीक रहे गांवों में गरीबी घटने के दावों पर विश्वास करना आज मुश्किल हो जाता है। यह सब ऊपर-ऊपर थोपने-दिखाने के लिए ‘अमीरी में गरीबी की मिलावट’ जैसा लगता है।