राज सिंह
भारत के इतिहास में अनेक विचित्र घटनाओं का समावेश है। इस समृद्ध इतिहास के मानचित्र पर बैरागी कुटिया से राजमहल तक जाने के मार्ग भी अंकित रहे हैं और राज सिंहासन से बैरागी गद्दी तक जाने के रास्ते भी।
15 वीं शताब्दी में गगनौरगढ़ रियासत के राजपूत राजा पीपाजी, स्वामी रामानंद से इतने प्रभावित हुए कि वे राज सिंहासन छोड़कर बैरागी संत बन गए और रामानंदी संप्रदाय के 36 द्वारों (पीठ) में से एक द्वारे के द्वाराधीश हुए। 18 वीं शताब्दी में रूप दास नाम के बैरागी साधु छत्तीसगढ़ में छुईखदान रियासत के राजा हो गए और प्रह्लाद दास बैरागी राजनंदगांव के राजा बन गए। लेकिन बैरागी कुटिया और राज महल का संबंध यहीं पर समाप्त नहीं हुआ। वर्ष 1757 में कृष्ण भक्ति के भावों से सजी वृंदावन की एक बैरागी कुटिया ने राजा सावंत सिंह को नागरी दास बैरागी बनकर वृंदावन में आजीवन प्रवास का निमंत्रण भेज दिया।
मरुभूमि में संगमरमर का शहर किशनगढ़ अपनी अनूठी चित्रकला के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। किशनगढ़ की चित्रकला में प्रेम और कृष्ण भक्ति को बेहद खूबसूरत तरीके से कूंचीबद्ध किया गया है और इसका श्रेय जाता है राजा सावंत सिंह को, जिन्होंने 1748 से 1757 तक किशनगढ़ रियासत पर शासन किया।
राजा सावंत सिंह के राज्य में कुशल प्रशासन के अतिरिक्त कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी एक नया आयाम स्थापित हुआ। लेकिन किशनगढ़ के इतिहास की इस पुस्तक में सौंदर्य और प्रेम का भी एक अध्याय साथ-साथ चल रहा था। 18 वीं शताब्दी की ‘इंडियन मोनालिसा’ कही जाने वाली ‘बणी ठणी’(सजी संवरी) या ‘बनी ठनी’ के नाम से प्रसिद्ध, राजमहल की एक बेहद खूबसूरत कवयित्रीऔर गायिका से राजा सावंत सिंह का अटूट प्रेम था। सावंत सिंह, राजा राज सिंह के कनिष्ठ पुत्र थे। कला में उनकी विशेष रुचि थी और भगवान कृष्ण में बेहद आस्था।
उन्हें शौर्य, भक्ति, कला एवं प्रेम का संगम कहा जाता है। उन्होंने न केवल कला को प्रोत्साहन दिया बल्कि चित्रकला के इतिहास में नए आयाम स्थापित कर दिए।
‘बनी ठनी’ 18 वीं शताब्दी के मध्य में किशनगढ़ राज्य की राज कवयित्री और गायिका होती थीं। कला प्रेमी राजकुमार सावंत सिंह, बनी ठनी की कविताओं और संगीत के साथ उनकी सुंदरता पर भी मुग्ध थे। राजकुमार सावंत सिंह स्वयं भी शृंगार और भक्ति रस के अच्छे कवि थे। उन्होंने अपनी कला के बल पर बनी ठनी के दिल में जगह बना ली थी। कला और संगीत के लिए उनकी पारस्परिक प्रशंसा एक दूसरे के प्रति प्रेम में बदल गई। चित्रकार निहालचंद ने अपनी उत्कृष्ट कला के माध्यम से, बनी ठनी और सावंत सिंह के चित्र बनाकर राधा-कृष्ण के भव्य स्वरूप को अमर कर दिया और राजा सावंत सिंह के संरक्षण में किशनगढ़, कला-संस्कृति के केंद्र के रूप में स्थापित हो गया।
राजा सावंत सिंह ने 9 वर्षों तक किशनगढ़ पर शासन किया, लेकिन 1757 में गृह कलह से उनका मन बेहद दुखी हो गया और उन्हें राज्य का शासन भार सा लगने लगा। कृष्ण भक्त राजा के विरक्त हो जाने के फलस्वरूप ब्रजवास करने की उनकी इच्छा प्रबल हो उठी। उन्होंने राज सिंहासन और राजमहल के साथ-साथ सावंत सिंह नाम का भी परित्याग कर दिया और बैरागी परंपराओं के अनुसार नागरी दास नाम धारण करके वृंदावन चले गए। कृष्ण भक्ति और शृंगार रस पर उनके लिखे हुए पद पहले ही ब्रज मंडल में काफी प्रसिद्ध हो चुके थे। अत: ब्रज वासियों ने बड़े प्रेम से इनका स्वागत किया।
नागरी दास ने कुल 75 रचनाएं की हैं और 73 रचनाओं का संग्रह नागरसमुच्चय के नाम से छपा। इनकी रचनाओं के तीन भाग हैं : वैराग्य सागर, शृंगार सागर और पद सागर। नागरी दास ने प्रेम, भक्ति और वैराग्य पर अनेक रचनाएं की हैं। उन्होंने त्योहारों, ऋतुओं और कृष्ण लीलाओं का भी बेहद सुंदर चित्रण किया है। कहा जाता है कि शृंगार और प्रेम पर नागरी दास से बेहतर किसी ने नहीं लिखा। नागरी दास ने यद्यपि ब्रज भाषा में लिखा है।
वल्लभाचार्य संप्रदाय के अष्टछाप कवियों तथा स्वामी हरिदास के शिष्य भक्त कवियों के ललित पदों से नागरी दास के पद बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं। बनी ठनी भी रसिक बिहारी के नाम से कविता लिखती थी। आगे चलकर इन्हें प्रिया व नागर रमणी नाम भी मिले। बनी ठनी की कविताएं भी नागरिक दास के साहित्य में ही छपी हैं।
जब राजा सावंत सिंह ने नागरी दास बनकर वृंदावन की बैरागी कुटिया के लिए प्रस्थान किया तो केवल बनी ठनी ही उनके साथ वृंदावन गई। नागरी दास ने अपना बाकी जीवन वृंदावन की बैरागी कुटिया में ही बनी ठनी के साथ रहकर कृष्ण भक्ति को समर्पित कर दिया। वर्ष 1764 में नागरी दास ने इस नश्वर संसार को अलविदा कह दिया और उनके बिना बनी ठनी भी कुछ महीने ही जीवित रह पाई। लेकिन बनी ठनी की सुंदरता और नागरी दास से उनका प्रेम आज भी अनूठी चित्रकला के रूप में अमर है। बनी ठनी का चित्र अजमेर संग्रहालय और पेरिस के अल्बर्ट हॉल में सुरक्षित है।
(लेखक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी हैं)