एनके सिंह

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि विश्व के महान फ्रांसिसी सेनापति और सैन्य-रणनीतिकार नेपोलियन 18 जून, 1815 को वॉटरलू में हार का सामना न करते, अगर उस दिन उनको दस्त और पेट में भयंकर दर्द के कारण अपना सैन्य-अभियान चार घंटे देर से न शुरू करना पड़ता। आम दिनों में नेपोलियन तड़के हमला करते थे, लेकिन उस दिन पेट में भयंकर दर्द की वजह से वे साढ़े ग्यारह बजे तक कूच नहीं कर सके। इस बीच प्रूसिया का कमांडर मार्शल ब्लूचर अपनी सेना लेकर वेलिंग्टन सेना की मदद में दोपहर तक पहुंच गया। अलग-अलग ये दोनों सेनाएं इस सैन्य-रणनीतिकार की शक्ति के आगे बेबस होतीं। महान लोग भी छोटी गलतियों या स्थितियों के कारण पराभव के शिकार होते रहे हैं।

उत्तर प्रदेश के बरेली में मुहर्रम पर ताजिए को लेकर जबरदस्त दंगा हो गया। दिल्ली के बवाना (ग्रामीण क्षेत्र) में भारतीय जनता पार्टी के स्थानीय विधायक की सदारत में कुछ सौ लोगों की ‘महापंचायत’ ने फैसला किया कि मुसलमान अबकी मुहर्रम में ताजिया हिंदू गांवों की ओर से नहीं निकालेंगे। इस पंचायत में ‘गौ माता की जय’ के नारे लगे। इस विधायक का कहना है: ‘उन्हें (मुसलमानों को) जो भी करना हो अपने घर में करें, हमने अपने शक्ति-प्रदर्शन से बता दिया है कि इस गांव से कोई ताजिया नहीं गुजरेगा’। ‘हमारे और उनके’ वाले भाव से भरी इस महापंचायत को अराजनीतिक और गैर-धार्मिक भी बताया गया। उधर इलाके के मुसलमानों का कहना है कि बकरीद पर भी इन्होंने समस्या खड़ी की थी। एक मुसलमान निवासी ने बताया कि पिछले सात साल से यह ताजिया निकाला जा रहा है। दिल्ली में ही, जो इस समय केंद्र शासन के आधीन है, एक हफ्ते पहले त्रिलोकपुरी में जबरदस्त दंगे हुए, जिसमें स्थानीय भाजपा नेताओं पर आरोप लगे थे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर, सहारनपुर और मेरठ के दंगों की आंच अब भी सुलग रही है। गुजरात का वडोदरा भी अछूता नहीं रहा।

अचानक देश का सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ा है। सौहार्द तो पिछले पैंसठ सालों में कभी राजनीतिक दलों ने बनने ही नहीं दिया, लेकिन माहौल वैमनस्यतानिष्ठ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का था। चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी की विजय ने बहुसंख्यक के एक वर्ग को सशक्तीकरण की झूठी चेतना से ओतप्रोत कर दिया जैसे मायावती, लालू यादव और मुलायम सिंह की राजनीति में होता है। मूल्य-निष्ठ राजनीति के तहत, जो भाजपा और उनके नेताओं से अपेक्षित था, ऐसे तत्त्वों पर लगाम लगाना जरूरी होता है। उसके बरखिलाफ संजीव बालियान और संगीत सोम का, जिन पर दंगे भड़काने का आरोप है, महिमामंडन करके पार्टी नेताओं ने अपनी मंशा भी जाहिर कर दी। कोढ़ में खाज तब हुआ, जब महंत आदित्यनाथ को प्रदेश उप-चुनावों का प्रभारी बनाया गया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को व्यापक जन-समर्थन है। यह किसी आक्रामक हिंदुत्व के कारण नहीं है, न ही यह किसी सांप्रदायिक उन्माद का प्रतिफल है। उनके व्यक्तित्व में जन-अपेक्षाओं की पूर्ति का आश्वासन दिखता है। और सरकार से वे अपेक्षाएं मंदिर बनाने के लिए नहीं, विकास की सीधी राह पर चलने के लिए हैं। क्या मोदी सांप्रदायिक दंगों या तज्जनित सामाजिक अविश्वास के माहौल में इस मार्ग पर चल पाएंगे? और अगर चल भी पड़े तो उसकी कीमत क्या होगी? देश में बदअमनी की हालत में शायद अमेरिका, आस्ट्रेलिया या विश्व समुदाय भी वैसा स्वागत नहीं करेगा, जैसा मेडिसन स्क्वायर में हुआ था।

आंकड़े गवाह हैं कि राम मंदिर चुनाव का मुद्दा बना रहा, फिर भी बहुसंख्यक भाजपा से दूर होता गया। मोदी जैसे जोड़-घटाना करने वाले नेता से यह उम्मीद नहीं है कि इस स्पष्ट सत्य को वे न देख पाएंगे। आज गलत या सही, मध्यवर्ग में मोदी की छवि चार प्रकार की है- सक्षम प्रशासक, योग्य विकासकर्ता, भ्रष्टाचार के खिलाफ शून्य-सहिष्णुता वाला और पाक-प्रायोजित आतंकवाद का शत्रु। अगर मोदी इन चारों से हट कर आक्रामक हिंदुत्व की ओर बढ़े, तो उदारवादी हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग, जो आज पहले से अधिक तार्किक और तथ्यात्मक है, मोदी और भाजपा को नकार देगा।
कुछ तर्क-वाक्यों और संबंधित तथ्यों पर गौर करें। भाजपा या उसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मानना है कि हिंदुओं के आराध्यदेव राम उनके दिल में बसते हैं, लिहाजा हर हिंदू की दिली इच्छा है कि अयोध्या में राममंदिर बने। इनका दूसरा तर्क-वाक्य है कि सभी चाहते हैं बगैर वैमनस्य के, संसद में अगर जरूरत हो तो संविधान संशोधन कर अन्यथा कानून बना कर राममंदिर बनाया जाए। तीसरा कि भाजपा हिंदुओं की एकमात्र रहनुमा है। इन तीनों तर्क-वाक्यों को एक साथ पढ़ें तो मतलब होगा कि देश के सभी हिंदुओं (जिनकी संख्या अस्सी प्रतिशत से ज्यादा है) को अपने दिल के सबसे करीब के मुद्दे पर बेहद प्रजातांत्रिक तरीके से अपनी रहनुमा पार्टी को दो-तिहाई बहुमत से जिता कर अयोध्या में भव्य राम मंदिर का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।

मगर मंदिर आंदोलन के उनतीस साल बीतने और ढांचा गिरने के इक्कीस साल बाद भी मताधिकार-प्राप्त हर सात हिंदुओं में से छह ने भाजपा को खारिज किया, केवल एक ने वोट दिया है। साथ ही, 1998 से आज तक हर तीसरे मतदाता ने पार्टी को वोट देना बंद कर दिया है।

विवादित ढांचा गिरने से आज तक अधिकतर हिंदुओं ने भारतीय जनता पार्टी को खारिज ही किया है। अस्सी प्रतिशत हिंदुओं की रहनुमाई का दावा करने वाली भाजपा को पार्टी के जन्म (1980) से आज तक आम चुनावों में कभी कांग्रेस से ज्यादा वोट नहीं मिले। जिस चुनाव में सबसे ज्यादा मत-प्रतिशत भाजपा का रहा, वह था 1998, जिसमें इसे 25.58 प्रतिशत वोट मिले, जो कांग्रेस के मत-प्रतिशत से तीन प्रतिशत कम थे। सन 2009 तक आते-आते इसका मत-प्रतिशत लगातार घटते हुए 18.6 प्रतिशत पर पहुंच गया, जबकि कांग्रेस का 28.6 प्रतिशत था। यानी कांग्रेस और भाजपा के वोट में डेढ़ गुने का अंतर। कांग्रेस को करीब बारह करोड़ मत मिले, जबकि हिंदुओं की ‘रहनुमा’, मंदिर निर्माण का वादा और शुचिता की बात करने वाली इस पार्टी को आठ करोड़ से कम।

तथ्यों को एक अन्य कोण से देखिए। सन 2009 में देश में कुल 71.40 करोड़ मतदाता थे। इनमें लगभग अट्ठावन करोड़ हिंदू थे। देश में इन मताधिकार प्राप्त लोगों में मात्र 39.50 करोड़ (54.6 प्रतिशत) ने मतदान किया। इनमें बत्तीस करोड़ हिंदू थे। लेकिन हिंदुओं की तथाकथित रहनुमा भाजपा को वोट पड़े आठ करोड़ से भी कम। अगर हिंदुओं के दिल के करीब राम हैं और हसरत है कि मंदिर बने तो अट्ठावन करोड़ मताधिकार प्राप्त हिंदुओं में क्यों मात्र आठ करोड़ ने ही भाजपा को वोट दिया। इसका सीधा मतलब है कि हर सात मताधिकार प्राप्त या चार मतदान करने वाले हिंदुओं में केवल एक ने भाजपा को वोट दिया। इसका सीधा मतलब यह भी था कि हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग उदारवादी है, और जैसे ही भाजपा या संघ आक्रामक हिंदुत्व का भाव लेने की कोशिश करते हैं वह उनसे विमुख हो जाता है।

अब आते हैं 2014 के आंकड़ों पर। भाजपा को (या मोदी को) इकतीस प्रतिशत मत मिले। ये मात्र उच्च वर्ग के नहीं हो सकते, क्योंकि उनका कुल प्रतिशत अठारह के लगभग है। इसका मतलब कि बयालीस प्रतिशत पिछड़े वर्ग में से और बाईस प्रतिशत अनुसूति जाति-जनजाति में से भी एक भाग ने मोदी को समर्थन दिया। यानी यादव के एक वर्ग ने मुलायम और लालू को छोड़ा और दलितों के एक हिस्से ने मायावती को। दक्षिण में भी जाति-आधारित राजनीति का ग्राफ गिरा। क्या ऐसे में यह जरूरी नहीं कि सख्त संदेश मोदी की तरफ से जाए कि आक्रामक हिंदुत्व के अलंबरदारों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी, कानूनी भी और पार्टी के स्तर पर भी। किसी संगीत सोम या बालियान को पार्टी अपना दुश्मन मानेगी। कोई उग्र आदित्यनाथ पार्टी का संकटमोचक नहीं होगा।

इन्हीं आंकड़ों और तर्क को उलटा करके देखें। जो प्रत्येक दस मतदाता मत देने गए उनमें से तीन ने ही मोदी की भाजपा को वोट दिया। जबकि 2009 के चुनाव में सोनिया गांधी की कांग्रेस को 2.9 लोगों ने। लेकिन अगर उस चुनाव को सोनिया की सुनामी नहीं माना गया तो 2014 के चुनाव में मोदी की सुनामी कैसे? इसीलिए मोदी को और सतर्कता से इस आधार को बढ़ाना होगा, जो विकास से ही बढ़ सकेगा, आदित्यनाथ के गेरुआ वस्त्र और सोम के उग्र भाषणों से नहीं।

प्रकारांतर से इसका मतलब यह भी हुआ कि न तो भाजपा हिंदुओं की राजनीतिक रहनुमा है, न ही मंदिर उसका प्रमुख मुद्दा है और न ही वह संसद का इस्तेमाल रोजी-रोटी छोड़ कर मंदिर-मस्जिद जैसे भावनात्मक मुद्दों पर करना चाहती है। राजनीतिशास्त्र का सिद्धांत है कि अर्ध या अल्पशिक्षित समाज में भावनात्मक मुद्दे संवैधानिक और तर्क-सम्मत असली मुद्दों को आच्छादित कर लेते हैं और पूरी संवैधानिक व्यवस्था को तोड़-मरोड़ कर कुछ काल तक अपनी ओर कर लेते हैं। भाजपा दो से एक सौ बयासी सीटों तक इसी की वजह से पहुंची थी।

मगर भारत की जनता ने हकीकत को समझ लिया कि रोटी, भ्रष्टाचार-मुक्त व्यवस्था, रोजगार के आभाव में मंदिर का कोई औचित्य नहीं है। ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ के अल्पकालिक उत्साह से हट कर जनता पूछने लगी ‘रोटी कब खिलाएंगे’ और ‘कलमाड़ी, राजा और येदियुरप्पा से कब बचाएंगे’। पिछले उनतीस सालों में समाज में प्रति-व्यक्ति आय, तर्कशक्ति और शिक्षा बढ़ी। लिहाजा अमित शाह, भाजपा या संघ को अपने पुराने सोच से हट कर स्थितियों को आंकना पडेÞगा।

दरअसल, समस्या मोदी के लिए और भी है। आडवाणी इस हकीकत को समझ गए थे और भाजपा का चेहरा उदारवादी करने के प्रयास में लगे, लेकिन संघ को अपने मूल से हटना रास नहीं आया। आडवाणी को किनारे होना पड़ा। भाजपा को सत्ता दिलाने के लिए संघ अपने मूल उद््देश्यों और तज्जनित प्रतिबद्धताओं से विमुख हो नहीं सकता, क्योंकि वैसा करने पर उसके सामने अपने अस्तित्व का प्रश्न आ जाएगा। भाजपा की समस्या है कि बगैर उदारवादी चेहरा दिखाए, जो वाजपेयी के बाद विलुप्त हो गया, वह चुनावी वैतरणी पार नहीं कर सकती। यानी भाजपा को यह वैतरणी पार करनी है तो संघ से अलग रास्ता अपनाना या संघ को अपने मूल से हटना होगा और वह भी अपने अस्तित्व की कीमत पर।
युवा अपने नेता से रोजगार चाहते हैं, अनाज, विकास, भ्रष्टाचार के खिलाफ एलान-ए-जंग चाहते हैं, न कि मंदिर। मोदी इस सांचे में फिट बैठते हैं।

लेकिन उनकी सफलता की शर्त ही यही है कि संघ और उग्र हिंदुत्व उनके आसपास न फटकें। आक्रामक हिंदुत्व और बढ़ता हिंदू लंपटवाद कहीं मोदी के लिए वॉटरलू न बन जाए।

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