बीजेपी ने मध्य प्रदेश में बड़ा सियासी खेला करते हुए मोहन यादव को अपना मुख्यमंत्री बना दिया है। ये एक ऐसा नाम है जिसकी ना मीडिया में चर्चा थी, ना बीजेपी खेमे में चर्चा दिख रही थी और वे खुद भी काफी लो प्रोफाइल रहते थे। लेकिन शायद इसी को मोदी-शाह की रणनीति कहते हैं जहां पर कयासबाजी से अलग दूसरे समीकरण साधने पर जोर दिया जाता है। इसी वजह से एक मोहन के जरिए बीजेपी ने फिर कई समीकरण साधने का काम कर दिया है। यादव हैं तो अखिलेश-तेजस्वी को संदेश है, ओबीसी हैं तो पिछड़े समाज को साधने की कवायद है और इंडिया गठबंधन की रणनीति को भी तगड़ी चुनौती देने का काम किया गया है।
हिंदी पट्टी में पूरी तरह फेल INDIA का नेरेटिव
पिछले कुछ समय से इंडिया गठबंधन एक मुद्दे को लगातार उठा रहा है- जातीय जनगणना। उसे लग रहा है कि पिछड़ों का साथ चाहिए तो ये मुद्दा ही गेमचेंजर साबित होगा। इसकी पहली अग्निपरीक्षा हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान हो गई। तीनों हिंदी पट्टी राज्यों में कांग्रेस को बुरी हार का सामना करना पड़ा। ये सारे वो राज्य थे जहां पर ओबीसी पॉलिटिक्स जोरों पर चलती है।
एक तरफ राजस्थान में इनकी संख्या 48 फीसदी के करीब है तो एमपी में ये 43 प्रतिशत है। वहीं छत्तीसगढ़ में ओबीसी समुदाय 45 प्रतिशत के करीब चल रहा है। लेकिन तीनों राज्यों में मिली हार ने बता दिया है कि जनता ने ना जातिगत जनगणना के मुद्दे को गंभीरता से लिया है और ना ही राहुल के उन बयानों तवज्जो दी गई है जहां वे पूछते नहीं थके कि ‘मोदी के कितने अधिकारी ओबीसी हैं’। अब राहुल गांधी के नेरेटिव जनता ने मध्य प्रदेश में मुंहतोड़ जवाब देने का काम किया है, वहीं पीएम नरेंद्र मोदी ने उसी राज्य में मोहन यादव को मुख्यमंत्री बना भी उसी जनता को सबसे बड़ा सियासी संदेश देने का काम किया है।
मोहन यादव कैसे बनने वाले बीजेपी के पोस्टर बॉय?
जो विपक्षी गठबंधन मोदी सरकार को पिछड़ों का विरोधी बता रहा था, इसी के सहारे अपनी 2024 की नैया पार लगाना चाहता था, उसको जवाब मोहन यादव की ताजपोशी है। मोहन यादव बीजेपी का ओबीसी चेहरा हैं, जमीन से उठे हुए नेता हैं और अब बीजेपी के लिए सबसे बड़ा नेरेटिव सेट करने का काम करने वाले हैं। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि अब जब भी विपक्ष फिर जातिगत जनगणना का मुद्दा उठाएगा या जब भी आरोप लगेगा कि ओबीसी को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं दिया जा रहा, मोहन ही बीजेपी के पोस्टर बॉय साबित होने वाले हैं।
बीजेपी ने मोहन के सहारे सिर्फ एमपी को नया मुख्यमंत्री नहीं दिया है, बल्कि कहना चाहिए 2024 के लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन के खिलाफ काउंटर नेरेटिव सेट करने में उनका सबसे बड़ा योगदान रहने वाला है। बड़ी बात ये है कि इस समय विपक्षी गठबंधन के पास अब मोदी के इस दांव का कोई जवाब नहीं है। जनता ने अभी के चुनावों में जिस तरह से इंडिया की ओबीसी पॉलिटिक्स को नकारा है, ये साफ है कि अब किसी दूसरी रणनीति पर काम करने की जरूरत है।
ओबीसी दांव फेल, कांग्रेस के पास ये विकल्प
अब ये दूसरी रणनीति क्या रहने वाली है, इसका फैसला अभी तक इंडिया गठबंधन नहीं कर पाया है। 19 दिसंबर को अगली बैठक दिल्ली में होने जा रही है, माना जा रहा है कि तब इन सभी पहलुओं पर चर्चा की जाएगी। वैसे पिछले कुछ समय में राहुल गांधी ने जरूर एक अलग तरह की सियासत करने की कोशिश की है। उनकी तरफ से कॉमन मैन वाली पॉलिटिक्स पर फोकस किया गया है। अगर उनके ओबीसी दांव को नजरअंदाज कर दिया जाए तो उन्होंने किसानों के बीच जाकर, कुली के बीच जाकर, सब्जी विक्रेताओं के बीच जाकर एक नई तरह की सियासत शुरू करने की कोशिश की है।
उन्होंने जाति-धर्म से ऊपर उठकर एक ऐसे समुदाय को साधने का प्रयास किया है जो सिर्फ उस पार्टी के साथ जाने वाला है जो उनके लिए काम करेगा। इस समय इंडिया गठबंधन के लिए भी यही सबसे मुफीद रणनीति भी साबित हो सकती है क्योंकि बीजेपी की ओबीसी पॉलिटिक्स का विपक्ष के पास कोई विकल्प नहीं दिख रहा है। इसके ऊपर एमपी के मोहन के साथ बीजेपी के पास छत्तीसगढ़ के ही विष्णुदेव साय का भी सहारा रहने वाला है, यानी कि पिछड़ों को साधने के लिए डबल चेहरे।
बीजेपी का यादव अखिलेश-लालू को करेगा बेचैन
यहां ये समझना भी जरूरी है कि मोहन यादव समुदाय से आते हैं, ऐसे में उन्हें सिर्फ एक पिछड़े नेता के रूप में देखना भी गलत रहने वाला है। बीजेपी ने भी इसी बात को समझते हुए उन्हें आगे किया है। असल में इंडिया गठबंधन को अगर बीजेपी को 2024 के चुनाव में चुनौती देनी है तो उत्तर प्रदेश और बिहार में भी अच्छा प्रदर्शन करना पड़ेगा। इन दोनों राज्यों से कुल 120 लोकसभा की सीटें निकलती हैं।
अब बीजेपी ने अपना पहला यादव मुख्यमंत्री बनाकर बिहार में लालू तो वहीं यूपी में अखिलेश की नींद उड़ाने का काम कर दिया है। ये बताने की जरूरत नहीं कि बिहार में राजद और यूपी में सपा यादव वोटर पर अपना एकाएक अधिकार समझती है। मानकर चला जाता है कि इस समाज का ज्यादातर वोट इन दोनों पार्टियों को ही मिलेगा। लेकिन अब मोहन यादव की ताजपोशी ने बीजेपी को भी उस समुदाय के बीच में पैठ जमाने का बड़ा मौका दे दिया है।
यूपी-बिहार की यादव पॉलिटिक्स
आंकड़ों में बात करें तो यूपी 9 से 10 फीसदी के करीब यादव हैं। यहां भी 12 जिलों में तो उनकी हिस्सेदारी 20 प्रतिशत के करीब चल रही है। 2022 के विधानसभा चुनावों में 83% यादवों ने एसपी को वोट दिया था. लेकिन उसी ट्रेंड को मोहन यादव का वाला दांव कमजोर कर सकता है। इसी तरह बिहार की बात करें तो वहां यहां पर यादवों की संख्या 14.26% है। यहां भी कई सीटों पर इनकी आबादी 50 फीसदी को भी पार कर जाती है। यानी कि राजद और बीजेपी के बीच में इन्हीं सीटों पर आगामी लोकसभा चुनाव में सबसे कड़ा मुकाबला देखने को मिलने वाला है।
यादव पॉलिटिक्स कांग्रेस को ले डूबेगी!
वैसे एक नजर से मोहन यादव का एमपी का मुख्यमंत्री बनना कांग्रेस को भी हिंदी पट्टी राज्यों में बड़ी चोट देने वाला है। इसका कारण भी मोहन की यादव पृष्ठभूमि ही है। असल में मोहन यादव की ताजपोशी ने अखिलेश यादव को भी बेचैन किया है, इस बेचैनी में अब खुद को सबसे बड़ा यादव नेता साबित करने के लिए वे ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने की कोशिश करेंगे। इसी तरह से बिहार में राजद भी अपना प्रभाव दिखाने के लिए और ज्यादा सीटों की डिमांड करेगी। वहीं चुनावी हारों से बाहर निकलने की कोशिश कर रही कांग्रेस के पास इतनी बारगेनिंग पावर होगी नहीं कि वो दबाव बना सके। यानी कि यादव समुदाय का वोट पाने की होड़ कांग्रेस को और नीचे धकेलने का काम करेगी।