63 साल का सफर कोई छोटा अंतराल नहीं होता है, आज भी मुझे याद है जब मैं भारत पहली बार आया था, मेरी ताकत पर, मेरी क्षमताओं पर विश्वास किसी को ज्यादा था नहीं। बस समय की जरूरत थी तो मेरे नाम पर मुहर लग गई। फिर तो बस साल बीतते गए और मैं 1971 के भारत-पाक युद्ध में दिखा, कारगिल में भी अपना शौर्य दिखाया, कई सालों बाद बालाकोट एयरस्ट्राइक में भी उपस्थिति रही। फिर भी इस जालिम समाज ने मुझे ‘Flying Coffin’ का तमगा दे दिया। बुरा तो लगा, दर्द भी हुआ, लेकिन सच्चाई का आईना तो मुझे भी दिख ही रहा था। हां मैं ही हूं MiG 21 और आज मेरी विदाई है।
मेरा निर्माण तो 1951 में हो गया था, रूसी वैज्ञानिकों ने खूब दिमाग लगा मुझे तैयार किया, मिकोयान-गुरेविच डिजाइन ब्यूरों में मेरी बारीकियों पर कई सालों तक काम हुआ। दूसरी ओर भारत भी आजाद हवा में सांस ले रहा था, अपने सपनों को साकार कर रहा था। लेकिन पाकिस्तान और चीन, उसे विरासत में दो ऐसे पड़ोसी मिले थे कि खतरा कभी कम था नहीं और उन्हें हल्के में लिया जा नहीं जा सकता था। इसी वजह से 1961 आते-आते भारत सरकार भी कह रही थी- उन्हें एक सुपरसोनिक विमान चाहिए था। उनकी जरूरत थी, मैं तैयार था, रूस भी अपने दोस्त के साथ इस साझेदारी को आगे बढ़ाना चाहता था।
लेकिन अभी मेरे भारत आने में कुछ अड़चनें बाकी थीं। ऐसी ही एक अड़चन तो अमेरिका था, वो पाकिस्तान को अपना F-104 स्टार फाइटर दे रहा था। भारत में एक्सपर्ट्स तरह-तरह की बातें करने लगे थे, दबाव बन रहा था कि अमेरिका से भारत भी F-104 खरीद ले। लेकिन तब का अमेरिका तो पाकिस्तान का ज्यादा सगा बन रहा था, ऐसे में वहां तो बात नहीं बन पा रही थी। तब जाकर सोविएत संघ से बात आगे बढ़ी और मेरा भारत आने का समय आ गया। 1961 में रूस और भारत में सौदा हुआ और फिर 1963 में मैं वायुसेना में शामिल हो गया।
आज भी याद है, मार्च 1963 में चंडीगढ़ में वायुसेना का स्क्वाड्रन तैयार था, वहां मुझे भी पहली बार तैनात किया गया। बढ़े गर्व से First Supersonics नाम दिया । मार्च 2, 1963 इस स्क्वाड्रन का कमांड विंग कमांडर दिलबाग सिंह के पास था। अब भारत के लिए तो मैं नया था, मुझे यहां की वायुसेना, यहां के अफसरों की क्षमता पर कभी शक नहीं था। लेकिन मेरी तकनीक उस जमाने के लिहाज से काफी आधुनिक थी, बिना ट्रेनिंग उड़ाना जोखिम से भरा था। ऐसे में विंग कमांडर दिलबाग सिंह, स्क्वाड्रन लीडर एम. एस. डी. वोलन और एस. के. मेहरा, और फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट ए. के. मुखर्जी, एच. एस. गिल, ए. के. सेन, डेनज़िल कीलोर और बी. डी. जयाल रूस गए थे। वहां उन्होंने काफी ट्रेनिंग ली।
अब मैं भारत की सेवा करने के लिए पूरी तरह तैयार था, कुछ कमियां थी, लेकिन फिर भी वायुसेना में अपनी सक्रिय भूमिका निभाना चाहता था। पहला मौका मुझे 1965 में मिला था, भारत-पाकिस्तान का युद्ध था। उस जंग के दौरान एयर पैट्रोलिंग में मेरी भूमिका रही। मन तो था कि मैं युद्ध में एक सक्रिय भूमिका निभाता, दो-चार दुश्मनों के विमानों को ठिकाने लगाता, खैर कोई बात नहीं, मुझे अपनी काबिलियत पता थी, जानता था कि आगे चलकर मैं ना सिर्फ इस भारत भूमि की सेवा करूंगा बल्कि वायुसेना की शान भी बनूंगा।
1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध ने मुझे वो मौका दिया। मेरे कई विमान युद्ध भूमि में तैनात थे, मेरा पाकिस्तान के F-104 स्टारफाइटर से सीधा मुकाबला भी हुआ। अपने सटीक हवाई हमले से मैंने कई टैंक तबाह किए, दुश्मन के ठिकानों को नेस्तनाबूद किया। सभी ने माना भी, पाकिस्तान से टूटकर जो बांग्लादेश बना, उसमें मेरी भी एक अहम भूमिका रही। मेरी ताकत से भारत भी खुश था, तभी तो 1966 से 1980 तक मेरी संख्या 872 पहुंच चुकी थी। पहले तो वायुसेना मुझे सिर्फ ऊंचाई वाले हमलों के लिए इस्तेमाल कर रही थी, लेकिन फिर नजदीकी लड़ाई में भी मेरा शौर्य दिखा, हवा से जमीनी हमलों में भी ताकत पूरी दुनिया ने देखी।
कई साल और बीत गए और हिंदुस्तान को एक और युद्ध में मेरी जरूरत पड़ी। 1999 में कारगिर की जंग छिड़ गई, मुकाबला फिर पाकिस्तान से ही था। ऑपरेशन विजय चला भारतीय सेना ने अपने शौर्य का परिचय दिया। इस युद्ध तक मैं थोड़ा पुराना हो चुका था, मुझे भारत आए 37 साल हो गए थे, मेरे कुछ विमान क्रैश भी हुए। लेकिन फिर भी मुश्किल खड़ी में वायुसेना ने फिर मुझ पर अपना भरोसा दिखाया और ऊंचाई वाले सभी इलाकों में मैंने ही सबसे ज्यादा बमबारी की। मेरी एक खासियत रही है, मैं हवा में तेजी से पलटी मार सकता हूं, रफ्तार कितनी भी हो, जब दुश्मन को चकमा देने की बात आएगी, मुझ से ज्यादा चालाक और कारगर कोई नहीं होगा।
अब 63 साल बाद मेरी विदाई हो रही है, बस एक बात का मलाल है, आज मुझे मेरे शौर्य से ज्यादा इस बात के लिए याद किया जा रहा है कि मेरे कितने विमान क्रैश हो गए। जानता हूं कि 482 के करीब क्रैश की दुर्घटनाएं हुई हैं, 171 पायलट, 39 नागरिक और 8 अन्य सेवा-कर्मचारियों की जान गई है। लेकिन उन क्रैश की वजह से मुझे ”Flying Coffin’ का तमगा दे देना मेरी सेवा के साथ कहां तक जायज है?
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