Maharashtra Hindi Controversy: महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस की सरकार को एक बड़ा सियासी झटका लगा है, वही ठाकरे ब्रदर्स को उनकी पहली बड़ी जीत मिली है। असल में रविवार को मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को हिंदी भाषा को लेकर लिए गए अपने फैसले को वापस लेना पड़ा। पहले तो नई शिक्षा नीति के तहत महाराष्ट्र के स्कूलों में हिंदी को भी पहली कक्षा से ही अनिवार्य कर दिया गया था, लेकिन जब विपक्ष ने इसे हिंदी थोपने की एक साजिश बताया, महाराष्ट्र सरकार को भी अपने कदम पीछे खींचने पड़े।

अब जानकार इसे सिर्फ एक फैसले के रूप में नहीं देख रहे हैं बल्कि एक बड़ी सियासी पिक्चर भी निकाल कर सामने आई है। लंबे समय बाद उद्धव और राज ठाकरे साथ आए हैं, दोनों की राय एक मुद्दे को लेकर समान दिखाई दी है और जब इसी एकता के जरिए दोनों सड़क पर उतरे, प्रचंड बहुमत वाली महायुति सरकार को भी यू टर्न लेना पड़ गया।

ठाकरे ब्रदर्स का आक्रमक रुख

महाराष्ट्र सरकार के इस न्यूटन को लेकर राज ठाकरे ने दो टूक कहा है कि हिंदी भाषा को थोपने की कोशिश को मराठी जन भावनाओं ने पूरी तरह विफल कर दिया है। मराठा समाज के आक्रोश का ही असर रहा कि सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े।

उद्धव ठाकरे ने भी सरकार के इस फैसले पर तंज कसा है, उन्होंने कहा कि मराठी और गैर मराठी को जो लड़वाने की साजिश हुई थी, अब वो पूरी तरह नाकाम हो चुकी है। उद्धव ने तो ऐलान कर दिया कि अब 5 जुलाई को विजय दिवस मनाया जाएगा। अब जानकारी के लिए बता दें कि पहले 5 जुलाई को ही इस हिंदी थोपने की पॉलिटिक्स के खिलाफ उद्धव और राज ठाकरे विरोध प्रदर्शन करने वाले थे, लेकिन उस प्रदर्शन से पहले ही सरकार का मन बदल गया।

यहां चार बड़े कारण जानते हैं जिस वजह से देवेंद्र फडणवीस की सरकार को यह इतना बड़ा ऊ टर्न लेना पड़ गया-

करण नंबर 1: विपक्षी एकता

वैसे तो कई मुद्दों पर महाराष्ट्र में विपक्ष एकजुट दिखाई नहीं देता है, कई बार तो शरद पवार का स्टैंड भी केंद्र सरकार से मेल खाता हुआ दिख जाता है> लेकिन बात जब हिंदी को लेकर आई, पूरा विपक्ष एक हो गया और महायुति के खिलाफ मजबूती के साथ खड़ा हुआ। बात चाहे राज ठाकरे की हो, उद्धव ठाकरे की हो, शरद पवार की हो या फिर कांग्रेस की, सभी ने अपना साथ दिया। उद्धव गुट ने तो हिंदी किताबों की होलिका जलाकर भी एक सांकेतिक विरोध प्रदर्शन कर दिया था, ऐसे में सरकार पर जबरदस्त दबाव था।

करण नंबर दो: मराठी अस्मिता का एंगल

महाराष्ट्र की राजनीति में मराठा समाज की भूमिका सबसे अहम मानी जाती है। किसी जमाने में बाल ठाकरे ने इसी मराठी अस्मिता के दम पर महाराष्ट्र में सरकार तक बना दी थी। ऐसे में बीजेपी और उसके साथी दल नहीं चाहते थे कि विपक्ष एक मुद्दे के दम पर पूरे मराठी समाज को उनके खिलाफ खड़ा कर दे।

करण नंबर 3: समाज के दूसरे हिस्सों का नहीं मिला समर्थन

अब ऐसा नहीं है कि महाराष्ट्र में थ्री लैंग्वेज पॉलिसी का विरोध सिर्फ मराठी समुदाय द्वारा किया जा रहा था, कई दूसरे बुद्धिजीवी, शिक्षक और सामाजिक संगठन भी इस योजना के खिलाफ थे। सोशल मीडिया के जरिए सरकार के खिलाफ ही माहौल भी बनाया जा रहा था, इसे भाषाई आक्रमण बताकर सरकार की छवि धूमिल की जा रही थी।

करण नंबर 4: निकाय चुनाव है नजदीक

राजनीति में कई फैसले चुनाव देखकर लिए भी जाते हैं और वापस भी लेने पड़ जाते हैं। महाराष्ट्र में भी आने वाले दिनों में निकाय चुनाव होने हैं, अगर उस चुनाव में हिंदी को लेकर नकारात्मक माहौल बन जाता और पूरा मराठी समाज एकजुट होकर महायुति के खिलाफ वोट करता, उसे बड़े सियासी झटके के रूप में देखा जाता। अब विपक्ष के इस प्रयास की हवा निकालने के लिए सरकार ने समय रहते इस फैसले को ही वापस ले लिया।

अब चार कारण तो पता चल गए जिस वजह से महाराष्ट्र सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े, लेकिन इस पूरे विवाद में एक बड़ा सियासी संदेश भी छिपा हुआ है। कई सालों बाद उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे की राह एक होती दिख रही है। इस एक हिंदी मुद्दे ने दोनों राज और उद्धव को अपना सियासी करियर संवारने का एक सुनहरा मौका दे दिया है।

उद्धव और राज ठाकरे के साथ आने के मायने

इसे ऐसे समझा जा सकता है कि राज ठाकरे ने तो अपनी पार्टी की नींव भी मराठी अस्मिता के आधार पर खड़ी की थी। बात जब भी मराठी और गैर मराठी की होती है, सबसे ज्यादा फायदा एमएनस को मिलता हुआ दिख जाता है। लेकिन पिछले कुछ चुनावों से क्योंकि यही फैक्टर सबसे कमजोर साबित हुआ, इस वजह से राज ठाकरे की पार्टी अपना खाता तक नहीं खोल पाई।

दूसरी तरफ उद्धव ठाकरे भी अपने लिए इस समय किसी संजीवनी की तलाश कर रहे थे। लोकसभा में किया शानदार प्रदर्शन के बाद विधानसभा में जैसी अप्रत्याशित हार उन्हें मिली, उस वजह से जमीन पर समीकरण बदल गए। चुनावी निष्कर्ष भी यह निकला कि मराठी वोट बंट गया और उद्धव ठाकरे को अपने उस समाज का एकमुश्त समर्थन हासिल नहीं हुआ। ऐसे में इस हिंदी मुद्दे के जरिए उद्धव भी एक बार फिर मराठी समाज में अपनी लोकप्रियता कायम करना चाहते हैं। अब इस कड़ी में ठाकरे ब्रदर्स को अपनी पहली सियासी जीत तो मिल चुकी है, लेकिन क्या आगे की राह भी इतनी आसान रहने वाली है?

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