मद्रास हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला लिया है। अंगप्रदक्षिणम प्रथा को मनाने पर वर्षों से लगी रोक हटा दी गई है। इस दौरान कोर्ट ने कहा कि अगर राइट टू प्राइवेसी में किसी की पसंद शामिल है तो इसमें किसी का आध्यात्मिक रुझान भी शामिल हो सकता है। किसी भी व्यक्ति को धार्मिक प्रथा मनाने का मौलिक अधिकार है। किसी भी व्यक्ति को पसंद आने वाला धार्मिक आचरण करने की अनुमति होगी अगर वह किसी के अधिकार और स्वतंत्रता को नुकसान ना पहुंचाए।
क्यों लगी थी रोक?
मद्रास हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ने 2015 में इस प्रथा को मनाने पर रोक लगाते हुए कहा था कि कोर्ट के पास किसी के धार्मिक प्रथा एवं रीति- रिवाजों में दखल करने के लिए अपनी शक्तियां है। कोर्ट धर्म के नाम पर ऐसे प्रथा और रीति-रिवाजों को मनाने की अनुमति नहीं दे सकता है, जिससे किसी इंसान को अपमानित होना पड़े।
क्या है अंगप्रदक्षिणम प्रथा?
अंगप्रदक्षिणम प्रथा में अन्य समुदायों के लोग ब्राह्मणों द्वारा इस्तेमाल कर छोड़े गए केले के पत्तों पर लेटते हैं। इस प्रथा में किसी भी समुदाय के भक्त, सादे पत्तों पर लेटने की रस्म का पालन करते हैं, जिस पर दूसरों ने खाना खाया था। जिला प्रशासन के अनुसार भक्त चाहे वे किसी भी समुदाय के हो, अंगप्रदक्षिणम प्रथा में भाग लेते हैं। यह प्रथा सांप्रदायिक सौहार्द और सामाजिक एकता की ओर इशारा करती है।
क्या है मामला?
याचिकाकर्ता पी. नवीन कुमार द्वारा हाईकोर्ट से नेरुर में संत के जीवन समाधि दिवस पर ‘अंगप्रदक्षिणम’ अनुष्ठान करने की अनुमति मांगी गई थी। याचिकाकर्ता ने धार्मिक सेवा करने का संकल्प लिया था और उसने अधिकारियों को पत्र लिखकर अनुमति मांगी थी। 2015 में अनुष्ठान का प्रदर्शन बंद होने के कारण अधिकारियों की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं दी गई। इसके बाद याचिका दाखिल की गई। सुनवाई के दौरान अधिकारियों ने बेंच को बताया कि 2015 से उच्च न्यायालय के आदेश के कारण वह इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं कर सकते हैं। पिछले आदेश में अधिकारियों को निर्देश दिया गया था कि भोजन के बाद बचे हुए केले के पत्तों पर किसी को भी लेटने की अनुमति न दी जाए।
