राधिका नागरथ

बहुत बार हम बाहरी स्वतंत्रता मनाते हुए अपनी आंतरिक स्वतंत्रता को नजरअंदाज कर देते हैं। जितने दिशा-निर्देश बाहरी स्वतंत्रता बनाने को जारी किए जाते हैं, उससे कहीं अधिक आंतरिक स्वतंत्रता के लिए दिशा-निर्देश हमारे ऋषि-मुनियों ने दिए हैं। जिसे हम अगर अपनाएं तो जीते जी मुक्ति पा सकते हैं।

हमारे ऋषि-मुनियों ने बाहरी स्वतंत्रता के साथ-साथ आंतरिक स्वतंत्रता पर काफी जोर दिया है, जो हर धर्म का अंतिम उद्देश्य है। इसी स्वतंत्रता को बुद्ध ने ज्ञान और ईसा ने भक्ति के जरिए प्रतिपादित किया। पतंजलि ऋषि के चारों योग- ज्ञान ,भक्ति, कर्म और राज योग भी इसी स्वतंत्रता की ओर ले जाते हैं।

19वीं शताब्दी के महान चिंतक, विचारक एवं योद्धा संत स्वामी विवेकानंद ने कर्म के रहस्य को बताते हुए बड़े साफ शब्दों में कहा कि रोजमर्रा की जिंदगी में कर्म करते हुए भी हम उस स्थिति को पा सकते हैं, जिसमें मनुष्य का मस्तिष्क केवल अच्छे कार्य करने के मार्ग में बाधित हो रहे अहंकार, अंत:करण एवं 5 कर्म इंद्रियों हो अपने नियंत्रण में कर सकता है।

स्वामी विवेकानंद कछुए का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जिस तरह कछुआ बाहर से आक्रमण होने पर अपने शेल के बीच में कुंठित बैठ जाता है और कितनी भी बाहर हलचल हो, वह उससे बाहर नहीं आता, उसी तरह जिस व्यक्ति ने अपनी आंतरिक प्रवृत्ति पर विजय पा ली, अपने इंद्रियों को वश में कर लिया, वह बाहरी किसी भी उथल-पुथल से प्रभावित नहीं होता।

जीवन में हम बार-बार यही गलती करते रहते हैं कि जिन इंद्रियों को हमने अपने वश में कर प्रकृति पर विजय पानी थी, उन इंद्रियों के खुद वश में होकर हम गुलाम की तरह जीते हैं। अगर हमारी आंख अच्छा देखने को कहती है तो हम उसे अच्छा दिखाने के लिए लालायित हो जाते हैं। जीभ कुछ स्वाद चखने को मचलती है तो हम उसके पीछे चल पड़ते हैं।

सांख्य योग में यह बार-बार आया है कि इस पूर्ण प्रकृति का उद्देश्य केवल एक ही है और वह है मनुष्य को यह ज्ञान देना कि उसका कार्य केवल मन और इंद्रियों को साधना है, मानव जीवन का उद्देश्य जीने के लिए खाना है, ना कि खाने के लिए जीना।
शास्त्रों में बार-बार एक ही बात को दोहरा गया है कि हमें गुलाम की तरह काम नहीं करना, आंतरिक मन में उठने वाली रीतियों से ना मिलकर, एक किनारे होकर सिर्फ देखना है कि यह सब कुछ हो रहा है। यह दृष्टा भाव और साक्षी भाव मन को नियंत्रित करने में बहुत मदद करता है।