बीते दो दिनों में मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने संसद में कथित तौर पर कुछ जेएनयू स्टूडेंट्स द्वारा महिषासुर को ‘शहीद’ के तौर पर बताए जाने पर काफी नाराजगी जताई थी। हालांकि, यह भी एक तथ्य ही है कि देश भर की आदिवासी प्रजातियां महिषासुर को मानती हैं।
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लातेहार नेतारहाट के सखुयापानी गांव की रहने वाली सुषमा असुर ने कहा, ”हम सभी एक ही धरती मां के गर्भ से पैदा हुए हैं। लड़ाई खत्म होने वाली नहीं है। लेकिन हम मानते हैं कि महिषासुर हमारे राजा थे और दुर्गा ने गलत तरीके से उनकी हत्या कर दी। पक्षपातपूर्ण तस्वीर क्यों पेश की जानी चाहिए। हमारे यहां महिषासुर की मूर्ति नहीं है। हमें उन्हें दिल में रखते हैं।”
सुषमा ने कहा, ”हम मानते हैं कि हम महिषासुर की वंशज हैं। हम दुर्गा पूजा नहीं मनाते। कई पीढि़यों से होकर हम तक पहुंचे रीति रिवाजों में हमें सही सिखाया गया है कि हमें उस रात हम एहतियात बरतें जब महिषासुर का वध हुआ था। हमारे समुदाय के लोग अपनी नाभि, कान, नाक और उन जगहों पर तेल लगाते हैं, जहां दुर्गा के त्रिशूल के वार से महिषासुर के शरीर से खून निकलते दिखाया गया है।” सुषमा ने यह भी बताया कि उनके समुदाय के लोग उन दिनों में शोक मनाते हैं, जब महिषासुर का वध किया गया। सुषमा असुर समुदाय से हैं, जिसे आधिकारिक तौर पर प्रिमिटिव ट्राइब ग्रुप के तौर पर वर्गीकृत किया गया है। इनकी झारखंड में तादाद 10 हजार से भी कम है।
एक्सपर्ट्स का कहना है कि राक्षसों के इस राजा की पूजा और उसकी मौत का शोक झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश के आदिवासी समूहों में मनाया जाता है। वंदना टेटे नाम की एक्टिविस्ट ने बताया कि असुर ही नहीं, बल्कि सबसे बड़े आदिवासी समुदाय संथाल भी महिषासुर और रावत की मौत का शोक मनाते हैं। पश्चिम बंगाल के पुरुलिया के रहने वाले अजीत प्रसाद हेमबराम ने बताया कि वे 2014 से ही महिषासुर का शहीदी दिवस मना रहे हैं।