शैलेंद्र
पश्चिम बंगाल से लगे झारखंड में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में वामदलों की उपस्थिति कैसी होगी, यह तो चुनाव नतीजे ही बता पाएंगे, लेकिन वाम दलों में दिलचस्पी रखने वालों में कोई खास उत्साह नहीं दिख रहा है। राजनीतिक प्रेक्षक यह मान कर चल रहे हैं कि इस बार भी वहां खंडित जनादेश की आशंका है। ऐसी हालत में वामदलों की सार्थक भूमिका देखी जा सकती है, अगर कुछ सीटें उनकी झोली में भी आएं। माकपा-भाकपा को उम्मीद है कि इस बार न केवल उनका खाता खुलेगा, सीटें भी संतोषजनक संख्या में मिल जाएंगी। माकपा नेत्री वृंदा करात समेत दूसरे नेता चुनाव सभाओं में कह रहे हैं कि भाजपा व कांग्रेस गठबंधन की अब तक की सरकारों से झारखंड की जनता का कोई भला नहीं हुआ, झारखंड मुक्ति मोर्चा से भी स्थानीय मतदाताओं का मन भर गया है। लेकिन हकीकत यह भी है कि बेहतर विकल्प का भरोसा वामदल पैदा करने में नाकाम रहे हैं, इसलिए असरकारी लड़ाई में कहीं-कहीं ही उनकी भूमिका हो सकती है।
झारखंड की पहली विधानसभा में वाम दलों के विधायकों की संख्या पांच थी, जो बाद में घटती ही गई। वामदल इसके पीछे जोड़तोड़ की राजनीति को दोषी ठहराते हैं। चुनाव में बढ़ती जा रही पैसे की भूमिका को भी जिम्मेदार ठहराते हैं। इससे किसी को शायद ही इनकार हो, लेकिन मजदूर संगठनों में असरदार भूमिका में होने के बावजूद कोयला खदान वाले इलाकों या बोकारो तक में अपने सदस्यों-समर्थकों के वोट नहीं जुटा पा रहे हैं। यह हालत क्यों है, इसका जवाब शायद उनके पास नहीं है।
इधर झामुमो-कांग्रेस में कुट्टी के बाद जद(एकी)का भी कांग्रेस-राजद से ठीक-ठाक गठबंधन नहीं हो पाया है। भाजपा प्रचार मुहिम में आगे बताई जा रही है, तो कांग्रेस दावा कर रही है कि भाजपा की चुनावी मार्केटिंग चलने वाली नहीं। ऐसी हालत में वामदलों को कुछ असर वाले इलाकों में लाभ मिल सकता है। लेकिन हकीकत यह भी है कि झारखंड राज्य के बनने के बाद 2005 और 2009 के चुनाव में वामदलों का जनाधार कम होता गया। हालांकि 2000 के चुनाव में झारखंड वाले इलाके में भाकपा ने तीन सीटें जीती थी। इसके बड़े नेता महेंद्र सिंह की 2005 के चुनावी प्रक्रिया के दौरान ही हत्या कर दी गई थी। बाद में बगोदर की जनता ने उनके पुत्र विनोद सिंह को चुन लिया था। 2009 में भी वे जीते थे। मार्क्सवादी समन्वय समिति की और से गुरुदास चटर्जी के बेटे अरूप चटर्जी ने निरसा से जीत हासिल की थी। जाहिर है,यह हालत संतो,जनक नहीं।
राजनीतिक प्रक्षकों के मुताबिक वामदल लगातार झारखंड की राजनीति में कद बढ़ाने की कोशिश में लगे हैं। इस बार वामदलों ने लगभग सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारा है। पर पड़ोसी राज्य की ताकतवर माकपा ने महज 12 सीटों पर ही अपने उम्मीदवार उतारे हैं। भाकपा ने 25 उम्मीदवारों को चुनावी जंग में उतारा है। बाकी सीटों पर एसयूसीआइ, फारवर्ड ब्लाक, एमसीसी आदि ने। 2009 के चुनाव में करीब आधे दर्जन सीटों पर वाम दलों के उम्मीदवार दूसरे या तीसरे स्थान पर रहे थे। माकपा और भाकपा का विधानसभा के अंदर खाता 10 साल से नहीं खुला है। हालांकि भाकपा ने जहां-जहां उम्मीदवार उतारे थे, वहां उसे 2005 में 9.19 फीसद मत और 2009 में 7.97 फीसद वोट मिले। यही हालत माकपा की भी रही। 2005 की तुलना में उसके मतों में 2009 में करीब दो फीसद की कमी आ गई थी।
झारखंड राज्य के गठन से पहले बिहार विधानसभा में वामदलों के 14 विधायक हुआ करते थे। इनमें माले के छह, सीपीएम के दो, सीपीआइ के पांच विधायक चुने गए थे। एमसीसी के पास भी एक सीट थी। भाकपा के विशेश्वर खान राज्य के पहले प्रोटेम स्पीकर बनाए गए थे। इस बीच ओपिनियन पोल में भी इन दलों के बाबत कुछ साफ तौर कुछ नहीं बताया गया है। अन्य में वामदलों को रखा गया है, पर सीटों का अनुमान नदारद है। 25 से 27 फीसद वोट अन्यों को मिलने की संभावना है, जिनमें भाकपा माले समेत बाकी सभी दलों को रखा गया है।
