भारतीय जनता पार्टी को शून्य से शिखर तक पहुंचाने में लालकृष्ण आडवाणी की अहम भूमिका मानी जाती हैं। अटल बिहारी वाजपेयी के साथ उन्होंने पार्टी का नेतृत्व लंबे समय तक किया। अपनी किताब ‘मेरा देश मेरा जीवन’ में उन्होंने बताया कि जब उन्हें पार्टी का अध्यक्ष बनाने की चर्चा हुई थी तो वह इसके लिए तैयार नहीं थे। पार्टी अध्यक्ष के जुड़े एक रोचक किस्से के बारे में उन्होंने अपनी किताब में लिखा कि 1968 में पंडित दीन दयाल उपाध्याय के निधन के बाद अटल बिहारी वाजपेयी को पार्टी का मुखिया बनाया गया था लेकिन 1971 में वह इस पद को छोड़ने को लेकर गंभीरता से विचार करने लगे। उन्होंने बताया कि 1972 के शुरुआती समय में अटल जी ने मुझसे कहा कि आप पार्टी के अध्यक्ष बन जाइए, यह सुनते ही मैं पेरशान हो गया और उनसे इसका कारण पूछा।
लालकृष्ण आडवाणी अपनी किताब में लिखते हैं कि मेरे कारण पूछने पर उन्होंने कहा कि मेरा चार साल कार्यकाल पूरा हो गया है अब समय है कि कोई नया व्यक्ति पार्टी का दायित्व स्वीकार करे। इसके जवाब में लाल कृष्ण आडवाणी ने कहा कि मैं पार्टी का अध्यक्ष कैसे हो सकता हूं, मैं तो किसी जनसभा में भाषण तक नहीं दे सकता हूं। आडवाणी मानते हैं कि राजनीति के शुरुआती दिनों में वह जनसभाओं को संबोधित करने में माहिर नहीं थे, वह लिखते हैं कि मुझे जनसभाओं में बोलने में संकोच हुआ करता था। इसके जवाब में अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा कि अब तो आप संसद में बोलने लगे हैं कि तो अब किस बात का संकोच है।
लालकृष्ण आडवाणी अपनी किताब के जरिए बताते हैं कि मैंने इस बात पर असहमति जताते हुए कहा कि पार्टी में जब कई वरिष्ठ नेता मौजूद हैं तो मैं इस पद पर कैसे आ सकता हूं। उन्होंने बताया कि मैंने अटल जी से कह दिया कि आप इस पद के लिए किसी अन्य व्यक्ति को ढूंढिए। अटल बिहारी वाजपेयी ने पूर्व उपप्रधानमंत्री से पूछा कि दूसरा व्यक्ति कौन हो सकता है, इसके जवाब में उन्होंने राजमाता का नाम सुझाया।
वह बताते हैं कि मैं और अटल बिहार वाजपेयी, राजमाता विजयाराजे सिंधिया को पार्टी की बागडोर सौंपने के लिए ग्वालियर उनसे मुलाकात करने के लिए पहुंचे। काफी मनाने के बाद वह तैयार हुईं लेकिन इसके लिए उन्होंने एक शर्त रख दी। शर्त के मुताबिक वह अपना अंतिम उत्तर दतिया स्थित अपने गुरु से राय लेने के बाद ही देंगी। उन्होंने बताया कि अगले दिन राजमाता ने इस पद को स्वीकार करने से इनकार करते हुए कहा कि गुरु जी ने इसकी अनुमति नहीं दी है।
एलके आडवाणी के अनुसार इसके बाद पार्टी अध्यक्ष का पद मुझे स्वीकार करना ही पड़ा, क्योंकि मुझसे उम्र और अनुभव में वरिष्ठ नानाजी देशमुख, कुशाभाऊ ठाकरे, सुंदर सिंह भंडारी और जगन्नाथ राव जोशी जैसे नेताओं ने मेरे नाम पर सहमति जताई थी। वह सभी संघ प्रचारक थे और कभी सत्ता या फिर किसी पद की लालसा नहीं रखते थे।
वह लिखते हैं कि जब मैं इन दिनों को याद करता हूं तो परेशान हो जाता हूं क्योंकि पार्टी के नेताओं में इस तरह का मैत्री और एक दूसरे के प्रति आस्था का भाव, कम होता जा रहा है। लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी किताब ‘मेरा देश मेरा जीवन’ में इस तरह के कई किस्सों का जिक्र किया है।