पर्लियामेंट्री अकाउंट कमेटी (पीएसी) एक बार फिर चर्चा में है। इसकी वजह पीएसी के चेयरमैन केवी थॉमस का दिया वो बयान जिसमें उन्होंने कहा था कि पीएसी नोटबंदी पर प्रधानमंत्री से भी स्पष्टीकरण मांग सकती है। ब्रिटिश कालीन पीएसी सभी संसदीय समितियों में सबसे पुरानी है। पीएसी सरकार द्वारा किए गए खर्च, संसद से पारित नीतियों के क्रियान्वयन, आर्थिक सुधारों और प्रशासनिक सुधारों इत्यादि की निगरानी करती है। आइए हम आपको बताते हैं पीएसी का इतिहास, इसकी शक्तियां, सीमाएं और इससे जुड़े विवादों के बारे में।

पीएसी से जुड़े विवाद- पिछले कुछ दशकों में पीएसी को लेकर कई विवाद हो चुके हैं। मंगलवार (10 जनवरी) को पीएसी के चेयरमैन केवी थॉमस ने कहा कि अगर समिति नोटबंदी पर भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर उर्जित पटेल एवं अन्य वित्तीय अधिकारियों के जवाब से संतुष्ट नहीं होगी तो वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी स्पष्टीकरण देने के लिए बुला सकती है। उर्जित पटेल इस महीने के आखिर में पीएसी के सामने पेश हो सकते हैं। आरबीआई पहले ही एक अन्य संसदीय कमेटी को बता चुका है कि मोदी सरकार ने आठ नवंबर को नोटबंदी की घोषणा से एक दिन पहले उसे 500 और 1000 के नोटों को बंद करने पर “विचार” करने के लिए कहा था। थॉमस पीएसी की शक्ति के बारे में बताना चाहते थे लेकिन एक तथ्य ये भी है कि आजतक कोई भी प्रधानमंत्री पीएसी के सामने नहीं हाजिर हुआ है।  टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले, कॉमनवेल्थ घोटाले और कोयला खदान आवंटन के मुद्दे पर पीएसी में सुनवाई को लेकर भाजपा और कांग्रेस के बीच काफी खींचतान हुई थी।

साल 2010 और 2011 में पीएसी के चेयरमैन मुरली मनोहर जोशी ने टू-जी घोटाले पर विवादित रिपोर्ट को आगे बढ़ाने की कोशिश की थी। जोशी ने तब कहा था कि वो इस मसले पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी जवाब देने के लिए बुला सकते हैं। उस समय कांग्रेस ने जोशी के इस बयान का काफी विरोध किया था। अंतिम में ये फैसला हुआ कि संवैधानिक विशेषज्ञों का एक पैनल बनाया जाए जो विचार करेगा कि टू-जी पर कैग रिपोर्ट पीएसी में विचार हो या नहीं। हालांकि बाद में वो मामला दब गया।

पिछले साल जुलाई में उस समय विवाद हो गया जब पीएसी ने रक्षा मामलों की एक उप-समिति का गठन किया गया जिसका काम अगस्तावेस्टलैंड हेलिकॉप्टरों की खरीद में हुई गड़बड़ी की जांच करना था। बीजेपी इस उप-समिति की अध्यक्षता करना चाहती थी लेकिन थॉमस ने उसकी मांग ये कहकर खारिज कर दी कि ये चेयरमैन का अधिकार है कि वो उस-समिति का अध्यक्ष किसे चुनें। पीएसी में कोई भी मामला “सहमति” के आधार पर तय होता है और जब ऐसा नहीं होता तो चेयरमैन की भूमिका पर विवाद हो जाता है।

पीएसी के सदस्य और बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे कहते हैं, “दूसरे विभागों से संबंधित समितियां किसी रिपोर्ट को कुछ सदस्यों के “डिसेंट नोट” (असहमति पत्र) के साथ स्वीकार कर सकती हैं लेकिन पीएसी में सभी रिपोर्ट को सहमति के आधार पर ही लिया जा सकता है। इसलिए पीएसी सभी समितियों से अलग है और तटस्थ है।” ऐसा लगता है कि पीएसी एक विशेष राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में काम करती है और विधायिका के कामों से जुड़े विशिष्ट मामलों को देखती है इसलिए इसे नीतियों के क्रियान्वयन पर जोर देना चाहिए न कि नीतियां बनाने पर ताकि पीएसी को लेकर राजनीतिक विवाद न हों।

पीएसी की वेबसाइट के अनुसार “पब्लिक अकाउंट कमेटी” गठन मान्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार के तहत 1921 में किया गया था। डब्ल्यूएम हेले इसके पहले अध्यक्ष थे और भूपेंद्र नाथ मित्रा इसके पहले भारतीय अध्यक्ष थे। आजादी से पहले पीएसी के आखिरी अध्यक्ष लियाक़त अली ख़ान। एग्जिक्यूटिव काउंसिल के वित्त सदस्य पीएसी के चेयरमैन होते हैं।  वित्त विभाग (वित्त मंत्रालय) 1949 तक इस समिति का सेक्रेटेरियट कामकाज में सहयोग करता था। अंतरिम सरकार के दौर में वित्त मंत्री  ही पीएसी के चेयरमैन हुआ करते थे। आजादी के बाद भारत के वित्त मंत्री इसके चेयरमैन हो गये।

26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के बाद “पब्लिक अकाउंट कमेटी” के बाद इसे “पर्लियामेंट्री अकाउंट कमेटी” बना दिया गया और लोक सभा के सभापति इसके चेयरमैन हो गये। लोक सभा के सभापति समिति के सदस्यों में से किसी एक को गैर-आधिकारिक चेयरमैन नामित करते थे जो इसका कामकाज देखता था। आजादी के शुरुआती दशकों में सत्ताधारी पार्टी का सांसद ही इसका चेयरमैन होता था। 1967 में पहली बार गैर-कांग्रेसी सांसद मीनू मसानी (स्वतंत्रता पार्टी) इसके चेयरमैन बने। उसके बाद से ही विपक्षी दल का सांसद इसका चेयरमैन होता रहा है। एनजी रंगा, पीवी नरसिम्हाराव, अटल बिहार वाजपेयी, एनडी तिवारी और बूटा सिंह पीएसी के चेयरमैन रह चुके हैं।

शक्तियां और चुनौतियां- खर्च की निगरानी करने की शक्ति होने के कारण पीएसी सांसदों द्वारा खर्च में बरती जाने वाली ढिलाई, उपेक्षा या गड़बड़ी की जांच का अधिकार रखती है। लेकिन तकनीकी सीमाओं के कारण पीएसी की जांच प्रभावित होती है। अधिकारी पीएसी की तरफ से भेजे गये समन पर कई बार हाजिर नहीं होते। इसलिए कई बार ये मांग की जाती है कि पीएसी के पास कड़ी सजा देने का भी अधिकार होना चाहिए।

पिछले साल दिसंबर में इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक ऑडिटर्स ऑफ इंडिया (आईपीएआई) ने स्वतः संज्ञान लेते हुए पीएसी के लिए जांच का अधिकार मांगा। पीएसी ने पिछले साल अप्रैल में मांग की थी कि कैग और ऑडिटर जनरल (एजी) की संसद के प्रति जवाबदेह बनाया जाए। ऑल इंडिया कॉन्फ्रेंस ऑफ चेयरपर्संस ऑफ पीएसी ऑफ पर्लियामेंट एंड स्टेट/यूटी लेजिसलेचर की रिपोर्ट से संकेत मिलता है कि पीएसी चाहती है कि कैग की नियुक्ति से पहले उससे सलाह ली जाए। रिपोर्ट के अनुसार पीएसी शायद ये भी चाहती है कि उसे पब्लिक प्राइवेट साझीदारी वाली कंपनियों की जांच का भी अधिकार होना चाहिए। पीएसी में दिए गए सुझावों में से एक सुझाव ये भा था कि तकनीकी मामलों में समिति को विशेषज्ञों की सेवाएं उपलब्ध होनी चाहिए।