करवा चौथ की पुरानी लीक आज विवाह संस्था की नई सीख है। खूबसूरत बात यह है कि इसे चहक के साथ सीखने और बरतने वालों में महज पति-पत्नी नहीं, एक-दूसरे को दोस्ती और प्यार के सुर्ख गुलाब भेंट करने वाले युवक-युवती भी हैं। यह एक व्रत के साथ सिंदूरी आस्था से जुड़े भारतीय मानस का एक ऐसा यथार्थ है, जो कई लिहाज से प्रासंगिक भी है और तार्किक भी। इस बार कोरोना संक्रमण के कारण बरते जा रहे एहतियात में इस सिंदूरी व्रत की धज संभव है कि कुछ कम देखने को मिले, पर एक ऐसे दौर में जब सबसे ज्यादा संकट संबंधों की दुनिया में है तो यह देखना खासा दिलचस्प है कि दांपत्य निर्वाह के मामले में भारत दुनिया में अव्वल देश है। करवा चौथ के बहाने भारतीय परिवार और समाज से जुड़े कई सामयिक संदर्भों की चर्चा कर रहे हैं प्रेम प्रकाश।
परंपरा जब आधुनिकता से गलबहियां डालकर डग भरती है तो उसका महज आकर्षण ही नहीं बढ़ता बल्कि उसकी स्वीकार्यता भी आश्चर्यजनक रूप से काफी बढ़ जाती है। बात करवा चौथ की हो या नवरात्रि के गरबा रास की, नए दौर में भी पुरानी परंपराओं से जुड़ने वालों की कमी नहीं है। करवा चौथ की कथा पारंपरिक पतिव्रता पत्नियों की चाहे जैसी भी छवि पेश करती रही हो, इस व्रत को करने वाली नई दौर की सौभाग्यवतियों ने न सिर्फ इस पुराकथा को बदला है बल्कि इस पर्व को मनाने के नए औचित्य भी गढ़े हैं। विवाह नाम की संस्था आज दांपत्य निर्वाह का महज ऐसा संकल्प भर नहीं है, जहां स्त्री-पुरुष संबंध के तमाम स्तरों और सरोकारों को महज संतानोत्पत्ति के महालक्ष्य के लिए तिरोहित कर दिया जाए। संबंधों के स्तर पर व्यावहारिकता और व्यावहारिकता के स्तर पर एक-दूसरे के मुताबिक होने-ढलने की ढेर सारी हसरतें, नए दौर में विवाह संस्था को मजबूत करने वाले ईंट-गारे हैं।
सीख के फेरे सात
दरअसल, करवा चौथ की पुरानी लीक आज विवाह संस्था की नई सीख है। खूबसूरत बात यह है कि इसे चहक के साथ सीखने और बरतने वालों में महज पति-पत्नी ही नहीं, एक-दूसरे को दोस्ती और प्यार के सुर्ख गुलाब भेंट करने वाले युवक-युवती भी शामिल हैं। कुछ साल पहले शादी के बाद बिहार से अमेरिका में जा बसी प्रत्यंचा और उसके पति मयंक को खुशी इस बात की है कि वे इस बार करवा चौथ अपने देश में अपने परिवार के साथ मनाएंगे, तो वहीं नोएडा की प्राइवेट यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली अनु इस खुशी से भर रही है कि वह पहली बार करवा चौथ करेगी और वह भी अपने प्यारे दोस्त के लिए। दोनों ही मामलों में खास बात यह है कि व्रत करने वाले एक नहीं दो हैं, यानी ईश्वर से अपने साथी के लिए वरदान मांगने में कोई पीछे नहीं रहना चाहता। सबको अपने प्यार पर फख्र है और सभी उसकी लंबी उम्र के लिए ख्वाहिशमंद।
‘अनमोल’ वजहें
भारतीय समाज में दांपत्य संबंध के तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद उसे बनाए, टिकाए और निभाते चलने की वजहें ज्यादा कारगर हैं। ये वही वजहे हैं जिन्हें पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा तक ‘अनमोल’ मानते हैं। राष्ट्रपति रहते हुए ओबामा अपने देशवासियों को भारतीय परिवारों के साझेपन से सीखने की दुहाई देते हैं। देह और संदेह के दौर में भारत के लिए यह बड़ी बात है और खासकर उस दौर में जब अपने यहां भी सहजीवन व समलैंगिकता जैसे वैकल्पिक और खुले संबंधों की वकालत सड़क से अदालत तक गूंज रही है।
अटूट साथ
विभिन्न अध्ययनों के हवाले से इस बात पर लगातार चिंता जताई जा रही है कि दांपत्य के दरकने का आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। आज तो हम उस मुहाने पर खड़े हैं जहां दस में से बमुश्किल पांच-छह शादियां सहज-सामान्य रह पाती हैं। दिलचस्प है कि जिन देशों में शादी और मनमुटाव का विरोधाभासी सांचा ज्यादा मजबूत हैं, उनमें अमेरिका, रूस, कनाडा और जर्मनी जैसे विकसित देश शामिल हैं।
इस मामले में गनीमत है कि अपने देश में तलाक का फीसद अभी दहाई अंक से काफी नीचे है। यहां जो बात साफ होने की है, वह यह कि टिकाऊ और दीर्घायु दांपत्य के पीछे अकेली वजह परंपरा निर्वाह नहीं हो सकती।
सचाई तो यह है कि नए दौर में पति-पत्नी का संबंध चर-अनुचर या स्वामी-दासी जैसा नहीं रह गया है। पूरे दिन करवा चौथ के नाम पर निर्जल उपवास के साथ पति की स्वस्थ और लंबी उम्र की कामना कुछ दशक पहले तक पत्नियां इसलिए भी करती थीं कि क्योंकि वो अपने पति के आगे खुद को हर तरीके से मोहताज मानती थीं। लिहाजा अपने ‘उनके’ लंबे साथ की कामना उनकी मजबूरी भी थी। आज ये मजबूरियां ‘मेड फॉर इच-अदर’ के रोमांटिक यथार्थ में बदल चुकी हैं। परिवार के संयुक्त की जगह एकल संरचना एक-दूसरे के प्रति जुड़ाव को कई स्तरों पर सशक्त करती है। संबंधों के बीच जगह बनाती यह सशक्तता आधुनिकता की एक बड़ी देन भी है।
बदलाव का मानस
बदलाव का यह मानस गांवों-कस्बों से ज्यादा नगरों-महानगरों में ज्यादा इसलिए भी दिखता है कि यहां पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं, दोनों परिवार को चलाने के लिए घर से लेकर बाहर तक बराबर का योगदान करते हैं। इसलिए जब एक-दूसरे की फिक्र करने की बारी भी आती है तो उत्साह दोनों ओर से दिखता है। पत्नी की हथेली पर मेंहदी सजे, इसकी खुशी पति में दिखती है, तो पति की पसंद वाले ट्राउजर की खरीद के लिए पत्नी भी खुशी के साथ बाजार निकलती है। यही नहीं, अब तो बच्चे पर प्यार उड़ेलने में भी मां-पिता की भूमिका जुदा-जुदा नहीं बल्कि साझी होती जा रही है।
करवा चौथ के दिन एक तरफ टीवी पर कांजीवरम या बनारसी साड़ी और सिंदूरी लाली के बीच पारंपरिक गहनों से लदी-फदी शहरी महिलाएं व्रत की थाली सजाए दिखती हैं, तो वहीं दूसरी तरफ फिल्मों की दुनिया से जुड़े नए-पुराने परिवारों में भी इस पर्व को लेकर उतना ही उत्साह दिखता है। इसके अलावा इस दिन देश के बड़े हिस्से में घर से लेकर बाजार तक एक सिंदूरी आभा दिखती है।
परंपरा भी, परिवर्तन भी
साफ है कि नया परिवार-संस्कार सामयिक सरोकारों को समेटते हुए परंपरा की गोद में पल-बढ़ रहा है। यह गोद किसी जड़ परंपरा की नहीं बल्कि समय के साथ बदलते नित्य नूतन होती परंपरा की है। भारतीय लोक परंपरा के पक्ष में अच्छी बात यही है कि इसमें समायोजन की प्रवृत्ति प्रबल है। यह नए दौर की जरूरतों और मान्यताओं को आत्मसात कर बदलती तो है पर बिगड़ती नहीं। वैसे भी इन दिनों करवा चौथ का बदला स्वरूप ही ज्यादा लोकप्रिय हो रहा है। अब यह पर्व कर्मकांडीय आस्था के बजाय उसी तरह मनाया जा रहा है जैसे मदर्स-फादर्स या वेलेंटाइन डे। यह अलग बात है कि बदलाव के इस झोंके में बाजार ने भी अपनी भूमिका तलाश ली है, सबके साथ वह भी हमारी खुशियों में शामिल है।
यह भी भारत की सिंदूरी परंपरा का दबाव और खासियत ही है कि बाजार अपने उत्पादों की ललक के लिए मां-बाप, बेटा-बेटी को अलग-अलग अपने लक्षित नहीं करता बल्कि एक महंगी गाड़ी से लेकर पंखा-कूलर तक बेचने के लिए उसे पारिवारिक इश्तेहारबाजी का सहारा लेना पड़ता है।
जिनकी राह जुदा-जुदा
भारत में जनसंख्या सर्वेक्षण में कभी शादी नहीं की, जीवनसाथी से अलग, तलाकशुदा, विधवा या विवाहित जैसे कई सवाल पूछे जाते हैं। अर्थशास्त्री सूरज जैकब और मानव विज्ञानी श्रीपर्णा चट्टोपाध्याय ने जनगणना के आधार पर वैवाहिक स्थितियों पर अध्ययन किया है। इस अध्ययन के मुताबिक देश में करीब 4 लाख लोग तलाकशुदा हैं। यह कुल आबादी का करीब 0.11 फीसद है और शादीशुदा (भारत के) आबादी का करीब 0.24 फीसद हिस्सा है। ज्यादा हैरत की बात यह है कि अलग हो चुके लोगों की संख्या तलाकशुदा से तीन गुना ज्यादा है।
उत्तर-पूर्वी भारतीय सूबों में तलाक के मामले बाकी इलाकों से थोड़े ज्यादा आते हैं। भारत के उत्तरी राज्यों जैसे- उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा और राजस्थान, जो कि पुरुष सत्तात्मक समाज के रूप में जाने जाते हैं; वहां तलाक और अलगाव की दर बहुत कम है। बड़े राज्यों में गुजरात में सबसे ज्यादा तलाक के मामले मौजूद हैं। यह अध्ययन यह भी साफ करता है कि अलग रह रही महिलाओं की संख्या और उनके अनुभव भारतीय समाज के उस उत्पीड़क पितृसत्तात्मक हकीकत को सामने लाते हैं, जिनमें महिलाओं को कदम-कदम पर शारीरिक-मानसिक तौर पर प्रताड़ित होना पड़ता है, कई क्रूर खामियाजे उठाने पड़ते हैं।