कोलकाता हाईकोर्ट के पूर्व जज सीएस कर्णन सरकारी आवास खाली नहीं करना चाहते हैं। राज्य आवास विभाग से एक नोटिस मिलने के बाद उन्होंने हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल को एक पत्र लिखकर बंगला खाली करने से मना कर दिया। उन्होंने तर्क दिया कि जब तक सुप्रीम कोर्ट के जजों के खिलाफ उनके द्वारा दिए गए फैसले के मामले का निष्पादन नहीं हो जाता है, उन्हें फ्लैट से नहीं हटाया जा सकता है। हालांकि, उन्होंने सीधे तौर पर यह नहीं कहा कि वे बंगला नहीं खाली करेंगे, सिर्फ ये कहा कि वे यहां रहना चाहते हैं। बता दें कि जस्टिस कर्णन 12 जून 2017 को रिटायर्ड हुए थे। इसके बाद कोर्ट की अवमानना की वजह से उन्हें छह महीने जेल में रहना पड़ा था। वे पिछले साल दिसंबर महीने में जेल से बाहर आए थे।
द हिन्दू की रिपोर्ट के अनुसार, कर्णन ने अपने पत्र में कहा कि, “मैंने वह आदेश अपने आवास सह शिफ्ट कोर्ट से जारी किया था। अत: जब तक मेरे उस आदेश के मामले का निष्पादन नहीं हो जाता, मैं यहां अभी रहना चाहता हूं।” साथ ही उन्होंने कहा कि वह इसके किराए का भुगतान करेंगे और यदि इस फ्लैट का मालिक इसे बेचने को तैयार हो तो इसे खरीदने को भी तैयार हैं।
वहीं, न्यायिक विभाग के सचिव को लिखे अपने पत्र में आवास विभाग के मुख्य अभियंता ने लिखा कि वर्तमान में जस्टिस कर्णन द्वारा कब्जे वाले फ्लैट के मालिक को यह खाली करना है ताकि वह इसे बेच सके। मुख्य अभियंता द्वारा लिखे पत्र में कहा गया है कि, “फ्लैट नंबर टी1 जीबी जो कि कोलकाता हाईकोर्ट के माननीय न्यायाधीश के रहने के लिए लिया गया है, वहां अभी कोलकाता हाईकोर्ट से रिटायर्ड हो चुके जज सीएस कर्णन रह रहे हैं। पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव इस फ्लैट को जल्द से जल्द खाली चाहते हैं।”
दरअसल, जस्टिस कर्णन ने सुप्रीम कोर्ट और मद्रास हाईकोर्ट के कई जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे। इसके बाद उनके उपर अवमानना का मुकदमा शुरू किया गया था। कर्णन ने कहा था कि, “8 फरवरी से ये सात मुझे किसी तरह का प्रशासनिक और न्यायिक कार्य नहीं करने दे रहे हैं। मुझे परेशान कर दिया है। इसलिए मैं इन सातों से मुआवजे में रूप में 14 करोड़ रूपये लूंगा।” 9 मई को उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के साथ छह जजों को एससी-एसटी एक्ट के तहत दोषी बताते हुए पांच साल की सजा के आदेश दिए थे। जबकि 8 फरवरी 2017 से ही सुप्रीम कोर्ट ने उनके द्वारा किसी तरह के प्रशासनिक और न्यायिक जांच करने पर रोक लगा दिया था। सुप्रीम कोर्ट के सात न्यायाधीशीय बेंच इस फैसले को अापत्तिजनक बताया था। कहा था कि यह आरोप “दुर्भावनापूर्ण और अपमानजनक” था।