सुप्रीम कोर्ट के हालिया इतिहास में जस्टिस अरुण मिश्रा के जैसा शायद ही किसी जज ने अपने कार्यकाल में उतनी बहस की हो, जितनी बहस का विषय वो खुद भी रहे हैं। बेंच से लेकर बार तक और विशेषज्ञों से लेकर कोर्टवॉचर्स तक आलोचकों की नजर में वह अदालत के एक ऐसे प्रतीक बन गए जिसने कार्यपालिका पर सवाल उठाने की अपनी संतुलित भूमिका को कमजोर किया है। हालांकि, उनके समर्थकों का तर्क है कि ऐसी आलोचना का मकसद राजनीति से प्रेरित है और उनका रिकॉर्ड शानदार रहा है।

जस्टिस मिश्रा ने जुलाई 2014 में सुप्रीम कोर्ट में पद-भार संभाला था। इससे पहले वो मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में करीब 11 साल तक जज रहे। उसके बाद राजस्थान और कलकत्ता हाईकोर्ट में चीफ जस्टिस रहे। इस दौरान जस्टिस मिश्रा ने सबसे ज्यादा राजनीतिक रूप से संवेदनशील और चुनाव से जुड़े मामलों की सुनवाई की। सुप्रीम कोर्ट में अपने कार्यकाल में उन्होंने सहारा-बिड़ला डायरी से लेकर हरेन पंड्या मर्डर केस, मेडिकल कॉलेज में रिश्वत का मामला, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण अधिनियम) में संशोधन, सीबीआई में शीर्ष पदों पर टकराव, भीमा-कोरेगांव मामले में अग्रिम जमानत याचिका और भूमि अधिग्रहण से जुड़े मामले की सुनवाई की। इस मामले में तो उन्होंने खुद उस बेंच की अगुवाई की जिसमें उन्होंने खुद पहले फैसला दिया था।

उनके आलोचकों का कहना है कि वैसे अधिकांश मामलों में जहां सरकार पार्टी थी, जस्टिस मिश्रा ने उन्हें संदेह का लाभ (बेनिफिट ऑफ डाउट्स) दिया। जनवरी 2017 में जस्टिस अमित्व रॉय और जस्टिस मिश्रा की एक बेंच ने सहारा-बिड़ला डायरियों की जांच के लिए एनजीओ कॉमन कॉज़ की उस याचिका को खारिज कर दिया था, जिसमें याचिकाकर्ता ने दावा किया था कि राजनीतिक दलों के शीर्ष पदाधिकारियों को कथित तौर पर भुगतान किया गया है।

सुप्रीम कोर्ट के चार सबसे वरिष्ठ जजों जस्टिस रंजन गोगोई, जे चेलमेश्वर, कुरियन जोसेफ और मदन बी लोकुर (अब सभी सेवानिवृत्त हो चुके) के द्वारा जनवरी 2018 में किए गए अभूतपूर्व प्रेस कॉन्फ्रेंस पर भी उन्होंने कोई खास ध्यान नहीं दिया गया। न्यायाधीशों ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा द्वारा “कनिष्ठ न्यायाधीशों” को महत्वपूर्ण मामलों के आवंटन पर चिंता व्यक्त की थी।

जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा था कि वे एक मामले की लिस्टिंग के संबंध में तत्कालीन सीजेआई से मिले थे, लेकिन उन्हें मना नहीं सके। न्यायमूर्ति गोगोई ने कहा: “यह मुकदमों के असाइनमेंट का मुद्दा है जो अदालत में भी उठाया गया मुद्दा है।” जब जस्टिस गोगोई से पूछा गया था कि क्या यह सीबीआई के विशेष न्यायाधीश बी एच लोया की मौत की जांच की मांग वाली याचिकाओं के बारे में है, तब उन्होंने सकारात्मक जवाब दिया था। बता दें कि तब लोया केस की सुनवाई जस्टिस मिश्रा कर रहे थे लेकिन जब चार जजों ने मामला उठाया तो इस मामले की सुनवाई खुद सीजेआई करने लगे।

हालांकि, अप्रैल 2018 में पत्रकार करण थापर के साथ सार्वजनिक बातचीत में जस्टिस चेलमेश्वर ने केस आवंटन में अनियमितता की बात को नकार दिया था और सवालों से बचते रहे थे। जस्टिस चेलमेश्वर ने तब जज लोया के केस की सुनवाई पर किसी तरह के विवाद पर भी कोई जवाब नहीं दिया था लेकिन इंडियन एक्सप्रेस को सूत्रों ने बताया था कि साल 2013 से जुड़े भूमि आवंटन केस की सुनवाई के लिए बनी बेंच पर भी जजों में तकरार था।

फरवरी 2018 में, जस्टिस मिश्रा और दो अन्य जजों की खंडपीठ ने 2: 1 के फैसले में कहा कि पांच साल की निर्धारित अवधि तक मुआवजा नहीं लेना भूमि अधिग्रहण रद्द करने का आधार नहीं बन सकता है। बाद में यह मामला पांच जजों की संविधान पीठ के पास गया, जिसमें खुद जस्टिस मिश्रा हेड थे। कई पक्षों ने जस्टिस मिश्रा को केस से हटने को कहा लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। जब एक वकील ने उनसे इस बारे में जिरह किया था, तब जस्टिस मिश्रा उस पर भड़क उठे थे और कहा था कि आप कोर्ट को बदनाम कर रहे हैं।

जस्टिस मिश्रा की ही बेंच ने वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण को दो ट्वीट पर आपराधिक अवमानना का दोषी ठहराया था और उन्हें लोकतंत्र के लिए खतरा बताया था। जब प्रशांत भूषण ने माफी मांगने से इनकार कर दिया था तब जस्टिस मिश्रा ने ऐसी सख्त टिप्पणी की थी। जस्टिस मिश्रा ने ये भी कहा कि जब न्यायाधीशों पर हमले होंगे तो वे बचाव करने के लिए मीडिया की तरफ नहीं दौड़ सकते हैं बल्कि केवल अपने फैसले के माध्यम से ही बोल सकते हैं।

इसी साल फ़रवरी में सुप्रीम कोर्ट के एक कार्यक्रम में जस्टिस मिश्रा ने पीएम मोदी को बहुमुखी प्रतिभा वाला नेता बताया था। इसकी बार एसोसिएशन ने कड़ी आलोचना की थी।