आदिगुरु शंकराचार्य ने भारत में शस्त्र और शास्त्र की परंपरा की नींव डालने के लिए दशनाम संन्यास का शुभारंभ किया था। आदि शंकराचार्य का जन्म 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व में हुआ था। बौद्ध धर्म का प्रभाव चारों ओर था। प्राचीन वैदिक सनातन परंपरा लगभग रसातल की ओर थी। ऐसी परिस्थितियों में आदि शंकराचार्य ने वैदिक कालीन परंपरा की पुनर्स्थापना के लिए दशनाम संन्यास परंपरा की की नींव डाली। इसके लिए उन्होंने जहां देश के चारों दिशाओं उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम चार पीठों की स्थापना की। आक्रांताओं से सनातन धर्म की रक्षा करने के लिए दशनामी संन्यासी अखाड़ों की नींव डाली जहां पर युवा संतों को शस्त्र विद्या में पारंगत किया गया और नागा साधुओं की ऐसी फौज बनाई गई जिन्होंने आक्रांताओं के नाको चने चबा दिए।
दशनामी संन्यासी परंपरा में सात अखाड़ों की स्थापना की गई। कालांतर में कई और अखाड़े अस्तित्व में आए। इस तरह बाहरी आक्रमणों हिंदू मंदिरों और मठों की रक्षा के लिए ये अखाड़े एक सुरक्षा कवच के तौर पर काम आए। कई मौकों पर विभिन्न राज्यों के राजा-महाराज विदेशी हमलावरों का मुकाबला करने में नागा योद्धा साधुओं का सहयोग लेते थे।
अखाड़ों के पदाधिकारियों को महन्त के नाम से संबोधित किया जाता है। इन अखाड़ों द्वारा आचार्य महामंडलेश्वर और महामंडलेश्वर बनाए जाते हैं। आचार्य महामंडलेश्वर संन्यास की दीक्षा देते हैं और आचार्य महामंडलेश्वर के साथ महामंडलेश्वर वैदिक सनातन परंपरा का प्रवचनों के द्वारा प्रचार-प्रसार करते हैं। आचार्य महामंडलेश्वर और महामंडलेश्वर वही संन्यासी बनता है जो चारों वेदों पुराणों उपनिषदों का प्रकांड में पंडित हो। हर अखाड़े का अपना एक आचार्य महामंडलेश्वर होता है जबकि महामंडलेश्वर की संख्या असीमित होती है।
आचार्य महामंडलेश्वर और महामंडलेश्वर स्वतंत्र रूप से अपने अपने आश्रम स्थापित कर सकते हैं। उनका मुख्य कार्य धर्म प्रचार है जब हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नाशिक- त्रंबकेश्वर में कुंभ का मेला लगता है तब विभिन्न अखाड़ों के नागा साधु अपनी-अपनी छावनी में डेरा डालते हैं और इनकी पेशवाई शानदार तरीके से निकलती है।
दशनामी संन्यासी परंपरा के नागा साधु शैव मत के होते हैं जो भगवान शिव के उपासक होते हैं। इस परंपरा के सात अखाड़े तपोनिधि श्री पंचायती निरंजनी अखाड़ा ,तपोनिधि श्री पंचायती आनंद अखाड़ा, श्री पंचायती महानिर्वाणी अखाड़ा, श्री पंच अटल अखाड़ा, श्री पंचदशनाम जूना अखाड़ा, श्री पंचदशनाम आवाहन अखाड़ा और श्री पंचदशनाम अग्नि अखाड़ा हैं। इन अखाड़ोंं के अपने-अपने इष्ट हैं। साथ ही इनके मुख्य देवता श्री सूर्य प्रकाश और श्री भैरव प्रकाश हैं जो भाले के आकार में अखाड़ों के इष्ट के मंदिरों में ससम्मान स्थापित है।
दशनामी संन्यासी परंपरा के सात अखाड़ों के बाद आगे चलकर रामानंदाचार्य परंपरा के बैरागी वैष्णव संप्रदाय के तीन अखाड़ों में दिगम्बर अणि अखाड़ा, निर्वानी अणि अखाड़ा, पंच निर्मोही अणि अखाड़ा, सिखों के प्रथम गुरु नानक देव जी के बेटे भगवान श्री चंद्राचार्य के द्वारा प्रतिपादित उदासीन संप्रदाय के दो अखाड़ों श्री पंचायती बड़ा उदासीन अखाड़ा, श्री पंचायती अखाड़ा नया उदासीन और और सिखों के दसवें गुरु गुरु गोविंद सिंह जी द्वारा स्थापित निर्मल संप्रदाय के श्री पंचायती निर्मल अखाड़े की स्थापना हुई और अखाड़ों की संख्या तेरह हो गई।
तपोनिधि श्री निरंजनी पंचायती अखाड़ा के सचिव महंत श्री रविंद्र पुरी महाराज का कहना है कि अखाड़े सदियों से धर्म के रक्षक माने जाते हैं। समय-समय पर अखाड़ों ने मुगलों और अंग्रेजों से मोर्चा लेने के लिए शस्त्र उठाए थे और आजादी के बाद अखाड़ों ने राष्ट्र निर्माण में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। श्री निरंजनी अखाड़ा 826 ईस्वी में गुजरात के मांडवी में स्थापित हुआ था। इनके ईष्ट देव भगवान शंकर के पुत्र कातिर्केय हैं। हमारे अखाडे में दिगम्बर, साधु, महन्त ,आचार्य महामंडलेश्वर और महामंडलेश्वर होते हैं। हमारे अखाड़े की शाखाएं प्रयागराज, उज्जैन, हरिद्वार, त्र्यंबकेश्वर व उदयपुर में हैं।