अपने लेखों में नामवर सिंह ने जिस बांग्ला साहित्य को नवजागरण काल के साहित्य का अगुआ माना है, उस बांग्ला साहित्य के पुरोधा साहित्यकारों को यह पीड़ा सालती रही कि उन्हें कोई ‘नामवर’ क्यों नहीं मिला। लेखिका महाश्वेता देवी, कवि शंख घोष, लेखक सुनील गंगोपाध्याय जैसे शीर्षस्थ समकालीन साहित्यकारों ने उनके अवदान को वैश्विक साहित्य में योगदान वाला माना। विष्णु प्रभाकर अपने ‘आवारा मसीहा’, और महाकवि निराला महिषादल की पृष्ठभूमि के कारण बांग्ला में सहज स्वीकार्य हैं। प्रेमचंद के गद्य से बांग्ला के रचनाकार उसी तरह प्रेरित होते रहे हैं, जैसे रवींद्रनाथ टैगोर की रचनाओं से। इन पुरोधाओं के बरक्स नामवर सिंह अलग अंदाज में बांग्ला में याद किए जाते हैं।
बात शुरू करते हैं दिवंगत सुनील गंगोपाध्याय से। गंगोपाध्याय कुछ साल साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष रहे। एक दफा बातचीत के दौरान उन्होंने कहा, ‘भारत पुनर्जागरण काल के साहित्य और उसके असर को समझना है तो नामवर को पढ़ना जरूरी है। उनकी स्थापना को बारीकी से समझने की जरूरत है। हिंदी ही नहीं भारतीय भाषाओं के लिए यह जरूरी है।’ दरअसल, अपने एक शोध में नामवर सिंह ने कहा है, ‘हिंदी की तुलना में बांग्ला और मराठी गद्य का विकास चार-पांच दशक पहले हो गया तो इसलिए कि वहां नवजागरण भी पहले हुआ। बांग्ला को उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में ही ईश्वरचंद्र विद्यासागर मिल गए और उत्तरार्ध में पहले बंकिमचंद्र, फिर रवींद्रनाथ।
बांग्ला नवजागरण के उन्नायकों ने, चाहे वे ब्राह्म हो या गैर-ब्राह्म सनातनी, बांग्ला के साथ ही हिंदी को भी बढ़ावा दिया, यहां तक कि संस्कृत के पंडित और गुजराती दयानंद सरस्वती को संस्कृत छोड़ हिंदी में बोलने और लिखने की नेक सलाह केशवचंद्र सेन से ही मिली। हिंदी प्रदेश के नवजागरण की अपनी विशिष्टता का निरूपण नवजागरण के इस अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य में ही समीचीन है। यदि हिंदी नवजागरण के अग्रदूत भारतेंदु बंगाल नवजागरण से प्रेरणा प्राप्त कर रहे थे तो उसके समर्थ सार्थवाह महावीरप्रसाद द्विवेदी की निष्पलक दृष्टि मराठी नवजागरण के अंतर्गत लिखे जा रहे साहित्य पर थी।’
कुछ साल पहले नामवर कोलकाता में महाश्वेता देवी नवनिर्मित मकान पर मिलने पहुंचे। तब वह खेरिया-शबर जनजाति के कुछ लोगों के साथ बैठक में थीं। उन्होंने बैठक खत्म होने तक उन्हें रुकने को कहा। बैठक के बाद घंटों बातचीत की, हिंदी से लेकर बांग्ला समेत तमाम भारतीय भाषाओं को साहित्य को लेकर। महाश्वेता देवी भारतेंदु को लेकर उनके लेखन से बेहद प्रभावित थीं। एक दफा उन्होंने हिंदी और बांग्ला साहित्य पर बात करते हुए नामवर सिंह की दी गई स्थापना का उल्लेख किया, ‘बंगाल नवजागरण से हिंदी नवजागरण को अलगाते समय यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतेंदु का सीधा संपर्क ईश्वरचंद्र विद्यासागर, केशवचंद्र सेन, बंकिमचंद्र, राजेंद्रलाल मित्र और सुरेंद्रनाथ बनर्जी से था।
भारतेंदु ने नाटकों में, जहां उन्हें क्रांतिकारी विचारों को व्यक्त करना होता था, प्राय: बंगाली चरित्रों की अवतारणा करते थे और उन्हीं को प्रवक्ता भी बनाते थे।’ नामवर सिंह अपने एक लेख में लिखते हैं, ‘हिंदी प्रदेश के नवजागरण के सम्मुख यह बहुत गंभीर प्रश्न है कि यहां का नवजागरण हिंदू और मुसलिम दो धाराओं में क्यों विभक्त हो गया। जिस प्रदेश में हिंदू-मुसलिम दोनों धर्मों के लोग एक साथ मिलकर सन सत्तावन में अंग्रेजी राज के खिलाफ लड़े, वहां दस वर्ष बाद ही जो नवजागरण शुरू हुआ वह हिंदू और मुसलिम दो अलग-अलग खानों में कैसे बंट गया, यह प्रश्न इसलिए भी गंभीर है कि बंगाल और महाराष्ट्र का नवजागरण इस प्रकार विभक्त नहीं हुआ। … हिंदी प्रदेश का नवजागरण धर्म, इतिहास, भाषा सभी स्तरों पर दो टुकड़े हो गया। स्वत्व रक्षा के प्रयास धर्म तथा संप्रदाय की जमीन से किए गए।’
आधुनिक बांग्ला कविता के कवि शंख घोष के मुताबिक, यह सवाल आज के समय में व्यापक रूप से समाज के सामने है और नामवर शिद्दत से चिंता जताते थे। कवि शंख घोष को 2016 में ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए चुना गया। उस साल चयन समिति के अध्यक्ष थे नामवर सिंह। उनके मुताबिक, नामवर ने समय-समय पर देश-काल की परिस्थितियों का जिस प्रकार से दार्शनिक विश्लेषण किया है, वह अनुकरणीय है। उनके कहे शब्द हमेशा नई राह दिखाते रहेंगे।’