पहचान की राजनीति में नारी मुक्ति आंदोलन ने एक लंबा सफर तय किया। इसी के साथ हासिल हुआ अन्य पहचानों की गरिमा और अधिकारों को हासिल करने का संघर्ष। दुनिया में स्त्री और पुरुष के अलावा अन्य पहचानों को भी एक नागरिक के तौर पर अधिकार देने की मांग हुई और दुनिया के कई देशों में इसे बहाल भी किया गया। लेकिन हाल के दिनों में समलैंगिक शादी के मामले में अदालत में केंद्र सरकार ने जो तर्क दिया है वह आधुनिकता और समानता के संघर्ष को बहुत पीछे धकेल देने के लिए काफी है।
दिल्ली हाई कोर्ट में केंद्र सरकार ने कहा कि समलैंगिक शादी भारतीय संस्कृति और रीति-रिवाज के खिलाफ है। समलैंगिक जोड़े द्वारा अपनी पसंद के साथी से विवाह करने को मौलिक अधिकार के दायरे में लाने की मांग करने वाली याचिका के जवाब में सरकार ने कहा, ‘आईपीसी की धारा 377 को वैध करने के बावजूद याचिकाकर्ता देश के कानूनों के तहत समलैंगिक विवाह को मौलिक अधिकार की तरह लागू करने का दावा नहीं कर सकता।
अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकारों का विस्तार कर इसमें समलैंगिक विवाहों के मौलिक अधिकारों को शामिल नहीं किया जा सकता…साथी के तौर पर साथ रहना और समान लिंग के लोगों के साथ यौन संबंध बनाने की तुलना पति, पत्नी और बच्चों वाले भारतीय परिवार से नहीं की जा सकती।’
केंद्र सरकार ने शादी को दो लोगों के बीच शारीरिक नहीं बल्कि सामाजिक संबंध के रूप में देखा है।
यहां विवाह को लेकर सरकार का जो नजरिया है, उसका संबंध वंश की वृद्धि से है। सवाल उठता है कि विवाह की जरूरत क्या है? इस पर तर्क है कि जीव जगत के हर प्राणी की प्राथमिकता खुद की बढ़ोतरी करनी होती है। उसकी नस्ल नष्ट न हो जाए इसके लिए बढ़ोतरी जरूरी है। जीव-जगत के इस सिद्धांत में मनुष्य सभ्यता का भी विकास करता है और अपने साथ परिवार का नाता जोड़ता है।
सभ्यतागत विकास में व्यक्ति का सीधा संबंध निजी संपत्ति से जुड़ा। इसलिए उसे परिवार की जरूरत पड़ी। समाज और सभ्यता के विकास के दौरान विवाह संस्था की संरचना में निजी संस्था की नियामकीय भूमिका रही है। इसी कारण मनुष्य अन्य प्राणियों से अलग भी है। यहीं से पितृसत्ता का भी जन्म होता है। देखते-देखते विवाह को लेकर संतान की चाहत संपत्ति और वारिस की दरकार से जुड़ गया।
महिला अधिकार के परिदृश्य में स्त्री-पुरुष के इसी पितृसत्तात्मक चरित्र को बदलने की जद्दोजहद रही है। उसमें अहम है संपत्ति में बराबर का स्वामित्व। जितना हक बेटे को उतना हक बेटी को भी। इस बराबरी की लड़ाई में दूसरा स्वर स्त्री-पुरुष संबंध कैसा हो के सवाल पर मुखर होता है। समाज में सिर्फ पुरुष और स्त्री का ही विवाह हो और किसी भी अन्य तरह से साथ रहने को गलत, अनैतिक करार देने की मानसिकता को तोड़ने की कोशिश हुई। दरअसल, विवाह में नैतिकता का संदर्भ पितृसत्ता की सामंती अवधारणा को पुष्ट करने वाला है, जिसमें स्त्री शरीर को नियंत्रित करने के लिए उसकी पहचान पुरुष के साथ ही जोड़ी गई है।
विवाह का मकसद सिर्फ बच्चा पैदा करना हो, यह जरूरी नहीं। असली मकसद दो लोगों का सुख-दुख में एक छत के नीचे रहना है। यह साथ कब और कैसे शरीर और मन की सीमा लांघती है, यह तय करने का अधिकार भी इन दोनों का ही है। अलबत्ता समलैंगिक शादी को अनैतिक करार देने के पीछे की सोच पूरी तरह से स्त्री देह और उसके भोग को लेकर बने पूर्वग्रह पर आधारित है।
शारीरिक संबंध और शादी को एक ही सिक्के का दो पहलू नहीं ठहराया जा सकता। स्त्री शारीरिक सुख किसके साथ और कैसे महसूस करेगी यह वो खुद तय नहीं कर सकती, नैतिकता के इस जबरिया दरकार के साथ ही नागरिक की स्वाधीनता और निजता को खत्म करने का खेल शुरू हो जाता है। सवाल है कि आखिर स्त्री के शरीर का फैसला कौन करेगा? उसका शरीर और उसकी इच्छा कौन तय करेगा? यह भी कि इस मामले में राज्य की भूमिका क्या हो?
कायदे से तो राज्य का काम स्त्री की निजता और पसंदगी की आजादी के अधिकार की सुरक्षा करना है। लेकिन यहां पर राज्य उलटा तर्क दे रहा है कि महिला की यह इच्छा परंपरागत पितृसत्तात्मक नैतिकता के विरुद्ध है, इसलिए खारिज की जाती है। समलैंगिक शादी को मौलिक अधिकार बनने देने से रोकने की ये पहल नारी मुक्ति आंदोलन की उन सारी पहलकदमियों को भी रौंदेगी जिसके लिए दुनिया भर की महिलाएं सदियों से संघर्ष कर रही हैं। यह पहल उसी पितृसत्तात्मक समाज की ओर वापस उतारने की पहली सीढ़ी बनेगी जहां स्त्री की पहचान सिर्फ पुरुष से होगी।