साल 1937 में कलकत्ता से प्रकाशित पत्रिका ‘मॉडर्न रिव्यू’ में चाणक्य द्वारा लिखित एक लेख प्रकाशित हुआ था, जिसमें कहा गया था कि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष में तानाशाह बनने की तमाम योग्यताएं, सोच और गुण मौजूद हैं। मसलन, लोकप्रियता, मजबूत और परिभाषित उद्देश्य, ऊर्जा, गौरव, संगठनात्मक क्षमता, कठोरता, भीड़ के साथ प्रेमभाव, दूसरों के प्रति असहिष्णुता और कमजोर व अक्षम लोगों के प्रति एक निश्चित अवमानना का भाव।
इसके दस साल बाद नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने। तब नेहरू के उदारवादी और लोकतांत्रिक रुख को देखते हुए चाणक्य का भय और संदेह दूर हो गया। दरअसल, 1937 में पंडित जवाहर लाल नेहरू ही भारतीय कांग्रेस के अध्यक्ष थे और चाणक्य (छद्म नाम) से संभवत: खुद की कमियों को उजागर करने के लिहाज से इस पत्रिका में जवाहर लाल नेहरू की आलोचना किया करते थे। नेहरू की यह क्षमता उन्हें युवा लोकतंत्र का भविष्य गढ़ने और लोगों का नेतृत्व करने में सहयोग करती होगी।
‘राष्ट्रपति जवाहर लाल की जय’ नामक आलेख में चाणक्य ने यह भी लिखा: “एक छोटा सा मोड़ जवाहरलाल को एक तानाशाह बना सकता है जो धीमी गति से चलने वाले लोकतंत्र के विरोधाभास को भी पार कर सकता है। वह अभी भी लोकतंत्र और समाजवाद की भाषा और नारे का उपयोग कर सकता है, लेकिन हम सभी जानते हैं कि इस भाषा पर फासीवाद कितना फैल चुका है और फिर इसे बेकार काठ बना दिया है।”
इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित संपादकीय ‘Nehru’s Chanakya’ के अनुसार, आज की तारीख में लोकतंत्र के अलावा भारत में किसी और चीज की कल्पना करना मुश्किल है लेकिन भारत जैसे राष्ट्र के इर्द-गिर्द, अन्य नव-विघटित देशों ने तानाशाही, सैन्य, राजनीतिक और स्वतंत्रता के वादे को तुच्छ साबित किया है क्योंकि स्वतंत्रता संघर्ष के बाद विपक्षी नेताओं ने उचित विरोध नहीं किया।
जिज्ञासा, उन्मूलन, शालीनता, विविधता-ये भारत के पहले प्रधान मंत्री के व्यक्तित्व के आधार थे जो लंबे समय तक रहे। उन्होंने देश के किसी भी छोटे हिस्से को भी प्रभावित नहीं किया जिसके वो संस्थापक पिता हैं। शुरुआत के 17 वर्षों में भारतीय गणतंत्र को कार्यकारी शक्ति की जांच करने का सौभाग्य मिला, जो सिर्फ संवैधानिक शक्तियों से अधिक था। यह दोषपूर्ण था लेकिन महान व्यक्ति की व्यक्तिगत और राजनीतिक नैतिकता से उपजी शक्ति है।
शायद 130वीं जयंती पर देश को नेहरू की जरूरत नहीं हो पर मौजूदा राजनीतिक परिदृश्यों और उसकी जटिलताओं में रंग उन्हीं के समय भरा गया है, जो पहचान की राजनीति से कहीं ज्यादा प्रभावित है लेकिन नेहरू का अहंकार और चाणक्य का परिवर्तन इस बात का उदाहरण है कि राजनीति किस तरह से अधिक क्षमतावान हो सकती है।