यह सही है कि अनुवाद, स्वतंत्र लेखन नहीं है। यह भी सही है कि मौलिक सृजन और अनुवाद के लिए समान गुणों की आवश्यकता नहीं होती। अनुवाद की मूल रचना से जन्मजात संबद्धता है और यह मौलिक सृजन के पश्चात ही किया जाता है। लेकिन क्या यह सिर्फ इसी आधार पर उपेक्षा करने योग्य है? अनुवाद को दोयम दर्जे का काम मानने का मूल कारण हम-आप ही हैं, जो अनुवाद का महत्त्व तो स्वीकार करते हैं, किंतु उसे सम्मान देने से बचना चाहते हैं। जबकि, सृजनशीलता-युक्त व्यावहारिक अनुभवों रूपी प्रसव-पीड़ा से गुजरते हुए अनुवादक द्वारा एक प्रकार से बच्चे को जन्म देने पर भी उससे सौतेला व्यवहार क्या अनुवादक के प्रति अन्याय नहीं है? जबकि यह मौलिक लेखन की तुलना में कई गुना जटिल और श्रम-साध्य कार्य है, लेकिन अनुवादक को उतना सम्मान नहीं दिया जाता है।

यानी सिद्धहस्त अनुवादक चाहे कितना ही श्रेष्ठ अनुवाद क्यों न करे, सम्मान मूल लेखक ही पाता है। जबकि अनूदित कृति, दो सृजकों की संयुक्त कृति होती है। और अनुवादक, इस सामाजिक अन्याय को सहन करता है और इसे ‘थैंकलैस जाब’ मानने के बावजूद दूसरों की रचनाओं को अपनी भाषा में उपलब्ध करा कर आनंद की अनुभूति प्राप्त करना चाहता है।

अगर ‘अनुवाद’ नहीं होता, तो भिन्न-भिन्न भाषा-भाषियों से विचारों, भावों और अनुभवों का आदान-प्रदान ही संभव न हो पाता। दरअसल, दो समाजों-संस्कृतियों, परिवेशों और भाषाओं के बीच का यह संवाद-सूत्र, अज्ञात को ज्ञात, अपरिचित को परिचित और भिन्न को अभिन्न बनाने की दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयत्न करता है। अनुवाद को ‘दोयम’ दर्जे पर प्रतिस्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका उन तथाकथित अनुवादकों की अधिक है, जो भ्रष्ट अनुवाद करते हैं। उनकी यह धारणा है कि अनुवाद करना आसान है, क्योंकि इसे शब्दकोश की सहायता से किया जा सकता है, जबकि वास्तविकता यह है कि सही और सरल अनुवाद करना उतना ही जटिल कार्य है, मूल कृति से ज्यादा दुरूह काम है।

अनुवाद और अनुवादक के प्रति उपेक्षित रवैये के लिए अनुवाद-समीक्षक भी जिम्मेदार हैं। अनूदित कृतियों की गलतियां निकाल कर, अन-अनूदित अंशों के ब्योरे देकर, अस्पष्टता-अपूर्णता को रेखांकित करना, अनूदित कृति को रूप-रस-गंधहीन सिद्ध करना, भाषा के स्तर पर अटपटेपन को रेखांकित करना और दुर्बोधता या उसे निकृष्टतम प्रयास करना या फिर मूल को अक्षुण्ण प्रस्तुत करने का तथाकथित प्रयास सिद्ध करना- इन अनुवाद-सामीक्षकों का तथाकथित समीक्षण-दायित्व बन चुका है।

लेकिन जिस तरह किसी साहित्यिक कृति का मूल्यांकन, तटस्थ समीक्षा और कालक्रम के अनुसार समाज द्वारा स्वीकृति पर निर्भर करता है, यही बात अनुवाद पर भी लागू होती है। निष्पक्ष समीक्षा ही कृति और कृतिकार (मूल लेखक हो या फिर अनुवादक) को कालजयी बना देती है। इसलिए अनुवाद कर्म, उसका सटीक पुनरीक्षण, मूल्यांकन और समीक्षण जैसे कार्यों में मानकता लाने के लिए ‘अनुवाद अकादमी’ की स्थापना इस दिशा में बेहतर प्रयास होगा।

अनुवाद का बाजार

अनुवाद, आर्थिक पक्ष से भी जुड़ा हुआ है। यह व्यवसाय के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है और धनार्जन का माध्यम है। लेकिन अच्छा अनुवाद-कार्य करने में जितनी मेहनत-मशक्कत करनी पड़ती है, उसकी एवज में दिया जाने वाला पारिश्रमिक पर्याप्त नहीं है। इसके बदले छोटे-मोटे अनुवादक काम करने को तैयार हो जाते हैं, जो अनुवाद को दोयम दर्जे का कार्य सिद्ध करने की दिशा में सहायक सिद्ध होते हैं। वैसे, अनुवादकों और विशेष रूप से अनुवाद को रोजगार का माध्यम मानने वाले अनुवादकों का, यह दायित्व है कि वे केवल आर्थिक पक्ष को हावी न होने दें; कृति के साथ न्याय करें; और व्यक्तिगत दायित्व-बोध को स्वीकार करें।

उनका यही व्यक्तिगत दायित्व-बोध, सामाजिक दायित्व-बोध में परिणत होगा, राष्ट्र की प्रगति में सहायक सिद्ध होता है। विश्व के प्रसिद्ध साहित्यकारों (चाहे वे शेक्सपियर हों, मैक्सिम गोर्की, मिल्टन, पास्तरनाक हों, बर्नार्ड शा या भारत के प्रेमचंद, टैगोर, निराला, रेणु, अज्ञेय, दिनकर आदि) को साहित्य में एकदम से प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो गई थी- समय ने उनकी कृतियों को कालजयी सिद्ध किया और समाज ने उन्हें समय बीतने के साथ-साथ स्वीकृति प्रदान की। यही बात अनुवादकों पर भी लागू की जा सकती है।

वास्तविकता यह है कि अनुवाद की अनिवार्य आवश्यकता-उपस्थिति और निरंतर बढ़ती हुई महत्ता यह बताती है कि अनुवाद, भाषाओं के बंद कमरे के गवाक्ष खोल कर स्वच्छ बयार लाता है। आज अनुवाद को दोयम दर्जे का कार्य मानने का समय नहीं रहा। पूर्व में भले ही अनुवादक प्रश्रय, संरक्षण, प्रसिद्धि, उत्पीड़न तथा मृत्युदंड तक पाते रहे हैं, लेकिन इसके कारण ही टीएस एलियट सरीखे विद्वान ने अपने काव्य-गुरु एजरा पाउंड की तुलना में भारत में जल्दी प्रसिद्धि प्राप्त की।

अगर अनुवाद न होते तो संभवत: शेक्सपियर की रचनाओं के विश्व की इतनी अधिक अनुवाद भाषाओं में अनुवाद न होते और वे ‘विश्व के महानतम साहित्यकार’ न बन पाते। हिंदी लेखक को बुकर पुरस्कार से न केवल अन्य भारतीय भाषाओं से भी लोग हिंदी में अब अनुवाद कराने पर जोर देंगे, बल्कि इससे अंग्रेजी आदि भाषाओं के साथ परस्पर अनुवाद को बढ़ावा मिलेगा। मूल सृजनात्मक कृति पर निर्भर रहने के बावजूद उसका दूसरी भाषा में सहपाठ सृजित करने का सशक्त माध्यम अनुवाद, वास्तव में वह समतुल्य सृजनात्मक कला-कर्म है, जो मूल पाठ की महत्ता को विस्तार प्रदान करती है। अनूदित रचना पर बुकर पुरस्कार इसी तथ्य के औचित्य पर उठे सवाल का सटीक जवाब है। ल्ल