भारत के लिए यह अपने आप में बड़ी उपलब्धि और गर्व की बात है कि 2021-22 में जलवायु परिवर्तन की विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अनाज उत्पादन में 31.57 करोड़ टन का कीर्तिमान बना। इसी तरह दालों का उत्पादन भी पिछले पांच वर्षों के औसत 2.38 करोड़ टन से बहुत अधिक रहा। मगर दो वर्ष पहले के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण से पता चलता है कि भारत में छोटे बच्चों की एक बड़ी आबादी को खाद्य असुरक्षा का सामना करना पड़ रहा है, जिससे उनके विकास और भविष्य के स्वास्थ्य को लेकर चिंताएं स्वाभाविक हैं। इससे कुछ पहले आए दूसरे आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रतिदिन लगभग 19 करोड़ लोगों के भूखे सोने की बात सामने आई थी। निश्चित रूप से बड़े पैमाने पर अनाज उत्पादन के बावजूद भूखे सोने वालों की संख्या अपने आप में बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न है। कहीं न कहीं यहां हमारी उन प्रणालियों में आपसी तालमेल की कमी है, जिससे ऐसी स्थितियां बनती हैं।
वैश्विक भुखमरी सूचकांक 2022 में भारत 121 देशों के बीच 107वें स्थान पर
ऐसे परस्पर विरोधी आंकड़ों के बीच संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन की एक ताजा रपट बताती है कि आपूर्ति शृंखला की कमी के कारण देश का हर वर्ष लगभग 11 से 15 प्रतिशत अनाज नष्ट हो जाता है। कैसी विडंबना है कि एक ओर किसान विभिन्न तकनीकों और अपने खून-पसीने से अनाज उगाने का कीर्तिमान बनाता है, वहीं वैश्विक भुखमरी सूचकांक 2022 में भारत 121 देशों के बीच 107वें स्थान पर आया है।
भारत में अवैज्ञानिक तरीकों से भंडारण का प्रचलन खुद सरकारें कराती हैं। खुले आसमान के नीचे कभी बोरों में या कभी यों ही ढेरों में पड़ा अनाज प्राय: सभी ने देखा है।
आंकड़े बताते हैं कि केवल वार्षिक भंडारण हानि लगभग सात हजार करोड़ रुपए की है, जिसमें 1.4 करोड़ टन खाद्यान्न बर्बाद होता है। यह भी कड़वा सच है कि भारतीय खाद्य निगम भंडारण करने में पूरी तरह सक्षम नहीं है। निगम द्वारा न तो गोदाम बनाने में तेजी आई, न ही अनाज सहेजने के लिए ही कोई पुख्ता व्यवस्था हो पाई। यह सब सरकार के दावों और कई संकल्पों के बावजूद हुआ। 2020-21 के बजट में किसानों के लिए 16 सूत्रीय फार्मूले की घोषणा हुई थी, जिसमें भंडारगृह और कोल्ड स्टरेज बनाना भी शामिल था।
सार्वजनिक एवं निजी भागीदारी से नए गोदाम बनाने के साथ ही प्रखंड स्तर पर भंडारण केंद्र की बात कही गई थी। फरवरी 2021 में एक संसदीय प्रश्नोत्तर में खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग की तरफ से बताया गया कि भारतीय खाद्य निगम ने पच्चीस लाख मीट्रिक टन ‘साइलो’ अर्थात थोक भंडारण का आधुनिक, सुरक्षित, यंत्रीकृत क्षमता प्राप्त कर ली है। मगर निश्चित रूप से यह भी मौजूदा कृषि उपज के मुकाबले बेहद कम है। उधर देश में 249 स्थानों पर इतनी क्षमता के ‘साइलो’ बनाने की योजना पर सहमति बनी, जिससे हजारों करोड़ रुपए के अनाज का संग्रहण हो सके। मगर लगता नहीं कि यह जल्द पूरा होने वाला है।
अभी विश्व में प्रति वर्ष लगभग 160 करोड़ टन खाद्य पदार्थ बर्बाद होता है, जिससे 330 करोड़ टन कार्बन डाइआक्साइड निकलती है। अगर तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो अमेरिका और चीन के बाद कार्बन डाइआक्साइड का सबसे अधिक उत्सर्जन खाद्य अपशिष्ट से होता है। आंकड़ों के अनुसार जितना खाद्यान्न सड़ता है, वह 140 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि के रकबे में पैदा होता है। इसका मतलब कि विश्व की तीस फीसद कृषि भूमि का अनाज बेकार चला जाता है। खराब हुए अनाज की कीमत लगभग 750 अरब डालर होती है।
हर कोई जानता है कि न तो तूफान रोके रुकता है और न ही बारिश की बेरुखी कोई रोक पाता है। अगर रोका जा सकता है तो खुले आसमान के नीचे प्लास्टिक की चादरों से ढंक कर भंडारण की बदहाल और भ्रष्ट व्यवस्था। अभी मानसून का मौसम है, लेकिन भरी गर्मी में बारिश हो जाना अब आम बात है।
बीते कुछ दशकों से तमाम पर्यावरणीय विक्षोभ तस्दीक भी करते हैं। सड़ांध मारती अनाज भंडारण व्यवस्था या लीपापोती का जुगाड़ जो भी कहें, हर बार हजारों मीट्रिक टन अनाज खुले आसमान के नीचे भिगाकर ऐसा खराब करता है कि पशुओं का निवाला तक नहीं बन पाता। जिम्मेदार बड़ी ही आसानी से सारा दोष बारिश के मत्थे मढ़ कर बच या बचाए जाते हैं, जो खुद बुलाई आपदा के वास्तविक दोषी हैं। हां, मिट्टी में मिलती है तो किसान की मेहनत, जिसने बड़ी लगन से फसल उगाई, मंडियों तक पहुंचाई।
यह भी सच है कि किसान हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। सैंतालीस फीसद भू-भाग में खेती होती है और सत्तर फीसद आबादी इसी पर निर्भर है। किसान अच्छी फसल उगाने में प्राय: सफल होता है, लेकिन इसी फसल का खुले आसमान के नीचे जो भंडारण होता है, वही बड़े प्रबंधकीय खेल का हिस्सा होता है। खरीद-फरोख्त का असली सच यहीं छिपा होता है, जो बारिश में अनाज भीगते ही दफ्न हो जाता है। इसके बाद शुरू होती है आंकड़ों की नई बाजीगरी। भरपूर पैदा हुए अनाज की फाइलों की भाषा बदलने लगती है। पहले की भाषा में फसलों की खुले आसमान के नीचे सुरक्षा की कोशिशों का वर्णन होता है, जो बाद में एक टीप में बदल जाता है और नई इबारत लिख जाती है, जिसमें लाखों खर्च के बावजूद नीली, पीली पालिथीन की मोटी तिरपाल फसल को नहीं बचा पाईं।
मौसम का रूप भी बिगड़ता रहता है, कब, कितनी बारिश हो जाए कोई नहीं जानता
कम से कम हमारे देश में एक बड़ी सच्चाई है कि सड़ांध मारती अनाज भंडारण व्यवस्था या भ्रष्टाचार की लीपापोती का जुगाड़ कहें, हर बार हजारों मीट्रिक टन अनाज खुले आसमान के नीचे भिगाकर ऐसा खराब किया जाता है कि पशु तक उसे नहीं निगल पाते हैं। वहीं जिम्मेदार बड़ी ही आसानी से सारा दोष बारिश के मत्थे मढ़ कर बच या बचा लिए जाकर लीपापोती का खेल कर जाते हैं। भले अभी मानसून का दौर हो, लेकिन इसी साल अब तक बिगड़ते मौसम के कितने रूप दिखे। कब, कितनी बारिश हो जाए कोई नहीं जानता।
मगर उम्मीद की किरण बाकी है। इसी वर्ष मई में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सहकारी क्षेत्र में दुनिया की सबसे बड़ी अनाज भंडारण क्षमता बनाने के लिए पहली बार एक लाख करोड़ रुपए के कार्यक्रमों को स्वीकृति दी है, ताकि अगले पांच वर्षों में सहकारी क्षेत्र में 700 लाख टन अनाज भंडारण क्षमता हासिल की जा सके। इससे दो समस्याओं का हल होगा। पहला, देश की खाद्य सुरक्षा को मजबूती मिलेगी। दूसरा, फसल का मैदानी नुकसान कम होगा, जिसके चलते किसान संकट के समय में औने-पौने दाम पर अपना उत्पाद बेचने को मजबूर नहीं होंगे। इस योजना के तहत प्रखंड स्तर पर 2000 टन क्षमता के गोदाम बनाकर सहकारी क्षेत्र को मजबूत किया जाएगा।
अभी हमारी भंडारण क्षमता उत्पादन का 47 फीसद ही है। खाद्य और कृषि संगठन यानी एफएओ, जो संयुक्त राष्ट्र तंत्र की सबसे बड़ी विशेषज्ञता प्राप्त एजेंसियों में से एक है, के अनुसार चीन दुनिया का सबसे बड़ा कृषि उत्पादक है। यहां बीते वर्ष 65 करोड़ टन अनाज का उत्पादन हुआ, जबकि गोदामों की क्षमता 70 करोड़ टन की है। निश्चित रूप से भारत को भी ऐसी ही क्षमता हासिल करनी होगी। खाद्यान्न भण्डारण की इस क्षमता को हासिल कर जहां हम अनाज को सड़ने से रोक लेंगे वहीं दुनिया में सबसे बड़े अनाज भंडारण की क्षमता के साथ नई ऊंचाइयों को भी छू लेंगे। बस, देश को उसी दिन का इंतजार है, जिससे एक साथ कई उपलब्धियों का सेहरा भी हमारे माथे पर होगा।