किसानों की आशंका है कि लिखित प्रतिश्रुति से भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। किसान कॉरपोरेट की कठपुतली बन जाएंगे। आठवें दौर की वार्ता में भी कोई हल नहीं निकला। सरकार एमएसपी तय करती है और उस कीमत पर किसानों की फसल खरीदती है, भले ही बंपर पैदावार से बाजार में उस फसल की कीमतें कम हो। कोशिश होती है कि बाजार में फसलों की कीमतों में होने वाले उतार-चढ़ाव का किसानों पर असर न पड़े। उन्हें न्यूनतम कीमत मिलती रहे।

इसकी जरूरत क्यों है

वर्ष 1950 और 1960 के दशक में किसान परेशान थे। यदि किसी फसल की बंपर पैदावार होती थी, तो उन्हें अच्छी कीमत नहीं मिल पाती थी। इस वजह से किसान आंदोलन करने लगे थे। लागत तक नहीं निकल पाती थी। खाद्यान्न प्रबंधन एक बड़ा संकट बन गया था।

वर्ष 1964 में एलके झा के नेतृत्व में ‘फूड-ग्रेन्स प्राइज कमेटी’ बनाई गई थी। झा कमेटी के सुझावों पर ही 1965 में भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) की स्थापना हुई और एग्रीकल्चरल प्राइसेज कमीशन (एपीसी) बना। एफसीआइ वह सरकारी संस्था है, जो एमएसपी पर अनाज खरीदती है और जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) के जरिए जनता तक अनाज को रियायती दरों पर पहुंचाती है। पीडीएस के तहत देशभर में करीब पांच लाख उचित मूल्य दुकानें हैं।

एपीसी का नाम 1985 में बदलकर सीएपीसी किया गया। यह कृषि से जुड़ी वस्तुओं की कीमतों को तय करने की नीति बनाने में सरकार की मदद करती है। एमएसपी के तहत अभी 22 फसलों की खरीद की जा रही है।

क्या किसानों को लाभ हो रहा

खाद्य और सार्वजनिक वितरण मामलों के राज्यमंत्री रावसाहब दानवे पाटिल ने 18 सितंबर को राज्यसभा में बताया कि नौ सितंबर की स्थिति में रबी सीजन में गेहूं पर एमएसपी का लाभ लेने वाले 43.33 लाख किसान थे, यह पिछले साल के 35.57 लाख से करीब 22 फीसद ज्यादा थे। 2016-17 में सरकार को एमएसपी पर गेहूं बेचने वाले किसानों की संख्या 20.46 लाख थी। अब इन किसानों की संख्या 112 फीसद ज्यादा है।

खरीफ में एमएसपी पर धान बेचने वाले किसानों की संख्या 2018-19 के 96.93 लाख के मुकाबले बढ़कर 1.24 करोड़ हो गई यानी 28 फीसद ज्यादा। इसमें अहम सवाल है कि क्या सभी किसान एमएसपी का लाभ ले पाते हैं।

खरीफ सीजन में धान बेचने वाले किसानों की संख्या 1.24 करोड़ थी। इनमें से पंजाब के 11.25 लाख और हरियाणा के 18.91 लाख किसान थे। प्रधानमंत्री किसान योजना के तहत देश के 14.5 करोड़ किसान परिवारों को लाभ मिलता है। लेकिन एमएसपी का लाभ लेने वाले किसानों की संख्या अधिकतम 1.24 करोड़ रही है।

सालाना पैदावार और सरकारी खरीद

आंकड़े बताते हैं कि पिछले पांच साल में गेहूं और धान की जितनी पैदावार हुई, उसका आधा भी सरकार ने नहीं खरीदा। फूड कॉरपोरेशन आॅफ इंडिया के मुताबिक 2015 में 1,044 लाख टन धान की पैदावार हुई थी, जिसमें से 342 लाख टन यानी 33 फीसद ही सरकार ने खरीदा।

इसी तरह 2019-20 में 1,179 लाख टन धान की पैदावार हुई, जिसमें से सरकार ने 510 लाख टन, यानी 43 फीसद खरीदी की। 2015 में 923 लाख टन गेहूं की पैदावार हुई, जिसमें से सरकार ने 230 लाख टन, यानी 25 फीसद गेहूं खरीदा। जबकि, 2019 में 1,072 लाख टन गेहूं पैदा हुआ, जिसमें से 390 लाख टन, यानी 36 फीसद गेहूं ही सरकार ने खरीदा।

छह फीसद को ही फायदा

केंद्र सरकार की एक रिपोर्ट बताती है कि देश के सिर्फ छह फीसद किसान ही एमएसपी का फायदा लेते हैं। इनमें भी सबसे ज्यादा किसान हरियाणा और पंजाब राज्यों के हैं।
2016 में आई नीति आयोग की एक रिपोर्ट बताती है कि पंजाब के 100 फीसद किसान अपनी फसल एमएसपी पर ही बेचते हैं।

अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य के जरिए पूरी फसल की खरीद सुनिश्चित की जाती है तो इसमें लगभग 10 लाख करोड़ रुपए का खर्च आएगा जो सरकार के वश में नहीं है। ऐसा करने के बाद सरकार के पास अन्य कल्याणकारी योजनाओं के लिए वित्तीय संसाधन नहीं बचेंगे।

क्या कहते
हैं जानकार

क्या सरकार के पास इतने आर्थिक संसाधन हैं कि वह जितना किसान बेचना चाहें, उतनी फसलों की खरीद कर सकती है? अभी देश में 30 लाख मीट्रिक टन खाद्यान्न पैदा होता है। इसका एक तिहाई किसान अपने लिए रखते हैं, जबकि एक तिहाई खरीद सरकार करती है। बाकी का एक तिहाई आज भी खुले बाजार में बेचना पड़ता है।
– पुष्पेंद्र चौधरी, अध्यक्ष, किसान शक्ति संघ

न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सारी फसलों की खरीद को अनिवार्य बनाने से किसानों का नुकसान होगा। निजी कंपनियों के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार खुला हुआ है। अगर किसी फसल की कीमत ज्यादा होती है तो कंपनियां इसे बाहर के खुले बाजार से खरीदने लगेंगी, जिससे किसानों की फसलों की पूरी खरीद नहीं हो पाएगी और इससे उनका ज्यादा नुकसान होगा।
– विजय सरदाना, कृषि विशेषज्ञ

वैकल्पिक रास्ते क्या हैं

कृषि विशेषज्ञों की राय में पश्चिमी देश किसानों को भारी मात्रा में सब्सिडी उपलब्ध कराते हैं, जिसके कारण फसल सस्ती बिकती है। एक सीमा तक उत्पादन बढ़ाकर इस घाटे को पूरा किया जा सकता है। साथ ही घाटे से मुक्ति के लिए किसानों को लाभकारी चीजों की व्यावसायिक खेती की तरफ कदम आगे बढ़ाने होंगे। खेती के साथ अन्य सह-उत्पादों को भी आजमाना होगा।

केवल किसानी अब उनकी समस्याओं का पूरा निराकरण करने में सक्षम नहीं है और इस कड़वी सच्चाई को स्वीकार किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए मक्का का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1850 रुपए प्रति क्विंटल है, लेकिन खुले बाजार में इसकी कीमत 900 से 1100 रुपए के बीच ही मिल पाती है। इसका बड़ा कारण यह है कि निजी कंपनियों को बेहतर गुणवत्ता का मक्का अंतरराष्ट्रीय बाजार में 1100 रुपए में मिल जाता है।

देश में लगभग 70 फीसद खाद्यान्न तेल अंतरराष्ट्रीय बाजार से खरीदा जा रहा है।
लेकिन देश में ही किसानों की सूरजमुखी की फसल नहीं बिक पा रही है। इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ा देने से देश में फसल महंगी हो जाती है, जबकि निजी कंपनियां वही चीज विदेश से सस्ते में आयात कर लेती हैं। ं