अनामिका सिंह

कुतुबमीनार से करीब 8 किलोमीटर की दूरी पर भारत के पहले इस्लामी मकबरे का प्रथम उदाहरण मिलता है। जिसे इल्तुतमिश ने अपने बड़े पुत्र व वारिस शहजादे नासिरुद्दीन महमूद के अवशेषों पर बनवाया था। इसे मुहम्मद गारी का मकबरा भी कहा जाता है। यह मकबरा आज हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बन गया है।

गुरुवार को जहां मुस्लिम चादर चढ़ाते हैं तो हिंदू रविवार को गुड़ चढ़ाते हैं, लेकिन दु:ख की बात यह है कि महरौली-पालम गांव के लोगों के अलावा यहां कोई पर्यटक नहीं जाता है। दरअसल, इसका उतना प्रचार नहीं किया गया, जितना अन्य ऐतिहासिक इमारतों का भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा किया जाता है।

बता दें कि इस मकबरे का नाम ‘गारी का मकबरा’ इसलिए पड़ा क्योंकि इसे भूमिगत कक्ष में बनाया गया है जिसे ‘गार’ कहा जाता है। इस कक्ष के ऊपर शहतीरों व सरदलों की व्यवस्था करके छत डाली गई है व इसे चूना कंकरीट से ढका गया है। कच्छ जिले के कुछ सल्तनत काल के स्मारकों को छोड़ दिया जाए तो ये पहला इस्लामी मकबरा है। इसके मुख्य प्रवेश द्वार पर अंकित लेख से पता चलता है कि इल्तुतमिश ने सन 1231 में वारिस शहजादे नासिरुद्दीन महमूद के अवशेषों पर इसे बनवाया था। जोकि 1229 में लखनौती में युद्ध के दौरान मारा गया था।

इसी शहजादे के मारे जाने के बाद रजिया सुल्तान गद्दी पर बैठी थी। यह स्मारक मकबरों से संबंधी वास्तुकला के उसी चरण का उदाहरण प्रस्तुत करता है, जोकि हमें कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद में मिलता है। यह मंदिरों से हटाए गए वास्तुकला संबंधी अवशेषों से निर्मित किया गया है। इसके कोनों में गुम्बदनुमा बुर्ज हैं जोकि इस स्मारक को छोटे किले का रूप दे देते हैं।

वहीं एक संगमरमर के मेहराब पर कुरान की आयतें लिखी हुईं हैं। इस मकबरे के कक्ष के बाहर सामने की ओर एक प्राचीन बलुए पत्थर की परत पर संगमरमर की परत है। इतिहासकार इसे फिरोजशाह तुगलक द्वारा निर्मित बताते हैं। यहां एक वेदिका में प्रयुक्त सीधा खड़ा पत्थर पाया गया है जो यह संकेत देता है कि लगभग 7वीं-8वीं शताब्दी में यहां एक मंदिर मौजूद था। साल 2015 में पहली बार एएसआइ द्वारा सुल्तान गारी के मकबरे को देखने आने वाले पर्यटकों के लिए टिकट व्यवस्था की थी, पर्यटकों का रुझान इस ओर नहीं हो सका।

दो अन्य बेटों के भी हैं मकबरे

इल्तुतमिश के दो पुत्रों रुकनुद्दीन फिरोजशाह (निधन 1237), मुइजुद्दीन बहराम शाह (निधन 1241) के स्तम्भवाले मकबरे हैं। ये थोड़े समय के लिए राजगद्दी पर बैठे। इनमें से पहला 1235 में व दूसरा 1241 में राजगद्दी पर बैठा था। वहीं इसके पास ही एक मस्जिद के खंडहर हैं। जिसे पुरातत्वविद् फिरोजशाह द्वारा बनाई गई बताते हैं, जबकि यहां के अन्य पुरावशेष पश्च मुगल काल के हो सकते हैं।