आरटीआई एक्ट 2005 में संशोधन से जुड़ी केंद्र सरकार की पहल का पूर्व इन्फॉर्मेशन कमिश्नरों से लेकर आरटीआई कार्यकर्ताओं ने तीखा विरोध किया है। उनके मुताबिक, इस पहल के तहत सरकार को इन्फॉर्मेशन कमिश्नरों का सेवाकाल और वेतन तय करने का अधिकार मिल जाएगा, जो इस कानून को शक्तिहीन बना देगा।
बता दें कि 2005 में लागू आरटीआई एक्ट में इन्फॉर्मेशन कमिश्नरों की सर्विस और स्टेटस परिभाषित है। इसके मुताबिक, एक बार नियुक्ति के बाद राज्य या केंद्र के इन्फॉर्मेशन कमिनश्नरों का सेवाकाल पांच साल होगा या फिर वे 65 साल के न हो जाएं (इनमें से जो पहले हो)। इसके अलावा, सेंट्रल इन्फॉर्मेशन कमिश्नरों का वेतन चीफ इलेक्शन कमिशनर के बराबर जबकि स्टेट इन्फॉर्मेशन कमिश्नरों की सैलरी राज्य के चीफ सेक्रेटरी के बराबर है।
शुक्रवार को लोकसभा में द राइट टु इन्फॉर्मेशन (अमेंडमेंट) बिल 2019 पेश किया गया। यह बिल इन्फॉर्मेशन कमिश्नरों की सैलरी और कार्यकाल तय करने का अधिकार केंद्र सरकार को देता है। बिल पेश करते हुए सरकार ने कहा था कि इन्फॉर्मेशन कमिश्नरों के फैसलों को हाई कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है, ऐसे में इन्फॉर्मेशन कमिश्नरों को हाई कोर्ट जजों के समतुल्य करना सही नहीं है।
वहीं, सेंट्रल इन्फॉर्मेशन कमिशन में इन्फॉर्मेशन कमिश्नर रह चुके श्रीधर आचार्युलु ने भी सरकार द्वारा कानून में बदलाव के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। एक अंग्रेजी अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक, उन्होंने सभी सांसदों से एक ओपल लेटर लिखकर अपील की है कि वे इस बिल का विरोध करें क्योंकि यह शक्ति छीनने की कोशिश है।
बता दें कि एक बार नियुक्त किए जाने के बाद इन्फॉर्मेशन कमिश्नरों को उनके तयशुदा कार्यकाल की वजह से गवर्नर या राष्ट्रपति द्वारा नहीं हटाया जा सकता। सिर्फ नैतिक पतन या मानसिक संतुलन खोलने की दशा में ही हटाया जा सकता है। आरटीआई कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस क्लॉज को हटाने से इन्फॉर्मेशन कमिश्नर सीधे तौर पर सरकार के फैसलों से प्रभावित होने लगेंगे।
आरटीआई कार्यकर्ताओं ने केंद्र सरकार की दलीलों को खारिज किया है। वे इसे कानूनी तौर पर चुनौती देने की तैयारी कर रहे हैं। उनका आरोप है कि सरकार आरटीआई एक्ट को नियंत्रित करना चाहती है। पुणे के सामाजिक कार्यकर्ता कनीज सुखरानी ने कहा, ‘यह पहला बदलाव सरकार को आगे इस बात का मौका देगा कि वह कानून में बदलाव करे।’