देश में हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात, मध्य महाराष्ट्र, विदर्भ, छत्तीसगढ़, ओड़ीशा में भारी बारिश से खेती और बागवानी की तबाहियों की दुखद दास्तान लंबी होती जा रही है। चार ही दिन की भारी बारिश ने हिमाचल प्रदेश को उलट-पुलट कर रख दिया। उत्तराखंड, हरियाणा, दिल्ली में भी त्राहि-त्राहि मच गई। आज भी हिमाचल से असम तक, कश्मीर से महाराष्ट्र-गुजरात तक बाढ़ जैसे हालात हैं। और प्रदेशों की कौन कहे, देश की राजधानी दिल्ली में ही बारिश के सताए हजारों लोग दर्जनों राहत शिविरों में गुजर-बसर कर रहे हैं। सारी पौधशालाएं बर्बाद हो चुकी हैं। इसका आम जीवन पर पड़े प्रभावों का विश्लेषण कर रहे हैं जयप्रकाश त्रिपाठी।

अधिकतर बाढ़ प्रभावित राज्यों के किसानों के होश उड़े हुए हैं। मानसून आने के पहले से वे आंधी-पानी का कहर झेल रहे हैं। रही-सही कसर अब बाढ़ पूरी कर रही है। बाद में मुआवजे मिलें भी, तो उससे उनके नुकसान की कितनी भरपाई हो पाएगी, जगजाहिर है। करोड़ों की खेती-बागवानी जलप्लावन की भेंट चढ़ जाने की कीमत तो आने वाले दिनों में, किसानों ही नहीं, हर किसी को चुकानी होगी।

टमाटर, दाल समेत अन्य सब्जियों के भाव आसमान चूमने से हाल के दिनों में यह सबक मिल चुका है। यह विनाशलीला कोई पहली बार नहीं हुई है, देश के आजाद होने के बाद से ही यह सिलसिला चला आ रहा है, लेकिन बेहद चिंताजनक है कि बाढ़ से बचाव के लिए कोई विस्तृत योजना सात दशकों में भी सामने नहीं आ सकी है।

योजनाबद्ध एहतियात न बाढ़ को लेकर है, न पर्यावरण, न ग्लोबल वार्मिंग के कारण जलवायु आपदा को लेकर। मुंहजबानी या कागजी तो बहुत कुछ होने का शोर बारहों महीने मचता रहता है। हर साल जब बाढ़ आती है, प्रभावित क्षेत्रों के हवाई सर्वेक्षणों का हल्ला मचता है, फिर वही ढाक के तीन पात। यह सब होना कितना अचरज भरा है, किसानी और बागवानी करने वाले करोड़ों किसान अच्छी तरह समझ रहे हैं। इस बार सबसे कड़ी मार पर्वतीय राज्यों, खासकर हिमाचल प्रदेश पर पड़ी है। वैसे हरियाणा और असम में भी कुछ कम तबाही नहीं हुई है।

जलवायु परिवर्तन का असर

जलवायु परिवर्तन से हर साल जल प्रलय में बढ़ोतरी होते जाने को लेकर वैज्ञानिक लगातार आगाह कर रहे हैं, जिससे भारत ही नहीं, अमेरिका, चीन, ब्रिटेन, स्पेन तक में भारी बाढ़ आ रही है। गंगा, रावी, चिनाब, ब्यास, सतलुज का उफान सिर्फ बारिश का सबब नहीं। अपने पूर्वानुमानों में मौसम विज्ञानी लंबे समय से कह रहे हैं, ठंडे महीनों की तरह मौसम का मिजाज बन गया है और यह नियमित गर्मी की नमी के साथ संपर्क में है।

आशंका है, आगे इसका बहुत विनाशकारी प्रभाव पड़ने वाला है। संवेदनशील क्षेत्रों के लोगों को तुरंत सुरक्षित और ऊंची जगहों का चयन करना होगा। गर्म हवाओं से पानी का बहुत ज्यादा वाष्पीकरण हो रहा है। बढ़ते जलवायु संकट की वजह से कई देश भयंकर बाढ़ का सामना कर रहे हैं।

वैज्ञानिक ऐसी भी ताकीद करने लगे हैं कि भूकम्प-रोधी डिजाइन की तरह, अब इमारतों का निर्माण इस तरह करना होगा कि वे बाढ़ का सामना कर सकें। नींव की गहराई, संरचनात्मक डिजाइन और निर्माण सामग्री को विशेष रूप से चुनना होगा। मजबूत तलघर होना चाहिए, ताकि उसमें पानी न भर सके और लोगों को जल्दी से सुरक्षित बाहर निकलने का मौका मिले। बाहरी दीवारें और छतें भी मजबूत बनानी होंगी। जलनिकासी में ‘रिटेंशन वाल्व’ इस्तेमाल करने होंगे। इससे बाढ़ का पानी घरों में जल्दी नहीं घुस पाएगा। इमारतों के निचले हिस्से की खिड़कियों और दरवाजों को ‘वाटरप्रूफ’ बनाना होगा।

वैज्ञानिकों का कहना है कि निजी तौर पर एहतियाती उपाय अपनाने से बाढ़ से होने वाले नुकसान को काफी कम किया जा सकता है। खासकर, ठंडे इलाकों में घरों को गर्म करने के र्इंधन टैंक जैसी विनाशकारी चीजों को भी सुरक्षित रखना होगा। तेल रिसाव से अगल-बगल की इमारतों को भी नुकसान पहुंच सकता है। बाढ़ निरोधक बनाने से तेल टैंकों को नुकसान से बचाया जा सकता है।

इससे इमारत और पर्यावरण को होने वाले नुकसान, दोनों को कम किया जा सकता है। सिर्फ इमारतों नहीं, शहरों और उनके आसपास के इलाकों में जलाशयों के साथ-साथ बांधों को मजबूत बनाकर पानी को नियंत्रित करना होगा, ताकि बाढ़ का पानी घरों के तलघर में पहुंचने से रोका जा सके।

उनका कहना है कि ये बांध और जलाशय अचानक होने वाली बारिश के पानी को जमा करने में मददगार साबित हो सकते हैं। हिमाचल, उत्तराखंड जैसे राज्यों के लिए वैज्ञानिकों की यह हिदायत अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो सकती है कि पर्वतीय इलाकों की संकरी घाटियों की छोटी नदियों में पानी को फैलने के लिए ज्यादा जगह नहीं होने से कुछ ही घंटों की मूसलाधार बारिश भारी बाढ़ ला सकती है। ऐसी जगहों पर शहरों को पानी के बढ़ते स्तर से बचाने के लिए, नहरों और बांधों को ऊंचा करने के साथ-साथ उनके क्षेत्रफल को भी बढ़ाना होगा।

वैज्ञानिकों का सोचना है कि ऐसे ढांचे बनाने होंगे, जो भविष्य में भी सुरक्षित रह सकें। यद्यपि, सिर्फ बेहतर निर्माण से जलप्लावन की हर समस्या के हल की उम्मीद नहीं की जा सकती है। तकनीकी, आर्थिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण से यह संभव नहीं है कि चरम मौसम की घटनाओं के कारण वातावरण और बुनियादी ढांचे को होने वाले नुकसान का पूरी तरह से पुनर्मूल्यांकन और पुनर्निर्माण किया जा सके। यह भी संभव नहीं है कि पूरी तरह उनकी सुरक्षा की जा सके। योजनाएं बनाने वालों और इंजीनियरों को प्रकृति को नियंत्रित करने की जगह उसके मुताबिक काम करने के तरीके खोजने होंगे।

जहां तक संभव हो, नदियों को प्राकृतिक स्वरूप में बहने दिया जाए। उनकी दिशा बदलने या उनके बहाव को सीधा नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा करने से बाढ़ के दौरान पानी जमा हो जाएगा। नदियों को सीमित करने की जगह बाढ़ के मैदानों के लिए जगह बनानी होगी। शहरों को इस तरह बसाया जाए कि पानी ज्यादा से ज्यादा जगहों पर फैल सके। एक जगह इकट्ठा न हो।

बुनियादी ढांचे में सुधार और बेहतर जल प्रबंधन से लोगों को तब तक मदद नहीं मिलेगी, जब तक उन्हें यह नहीं पता होगा कि बाढ़ आने पर उससे किस तरह निपटना है। सार्वजनिक जागरूकता भी बहुत जरूरी है। बाढ़ की आपातकालीन स्थितियों से रक्षा के उपायों से संबंधित जानकारियों को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करना होगा।

खेती और बागवानी पर टूटा कहर

किसान व्यथित हैं। उनकी सारी मेहनत पर पानी फिर चुका है। नुकसान की भरपाई आश्वासनों तक सीमित है। उत्तर प्रदेश में बीते पांच दशकों में पहली बार नदियां इतने जबर्दस्त उफान पर हैं। असम में ब्रह्मपुत्र के सत्रह जिलों- धेमाजी, लखीमपुर, बक्सा, बारपेटा, दरांग, धुबरी, कोकराझार, नलबारी, शोणितपुर, उदलगिरी आदि की हजारों एकड़ फसलों को तबाह कर दिया है।

‘राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार सैकड़ों गांव भारी बर्बादी के हालात से जूझ रहे हैं। चाय की फसल को भारी नुकसान पहुंचा है। बिहार की भी आपबीती बीते वर्षों की बनिस्बत ज्यादा भयावह होती जा रही है। पानी खेतों, मकानों में घुस रहा है। इस बार की बारिश, विभिन्न राज्यों में अब तक घोषित तौर पर लगभग पंद्रह हजार करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान कर चुकी है, जिसका सबसे बड़ा हिस्सा फसलों, सब्जियों, नर्सरियों और बागवानियों की बर्बादी का है।

प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं कि बारिश के दिनों में कब तक दिल्ली समेत देश के बाकी जलमग्न हिस्सों में लोग नावों के भरोसे रहेंगे। देश के चार करोड़ हेक्टेयर में हर साल तबाही मचाने वाली बाढ़ लगभग पचास करोड़ आबादी को हर साल घेर लेती है, सैकड़ों जानें जाती हैं। बाढ़ प्रभावित इलाकों के लगातार विस्तार और इस दौरान एक लाख से अधिक मौतों, 4.69 खरब रुपए की आर्थिक चपत के बावजूद इससे उबारने, जान-माल बचाने की कोई ठोस तस्वीर क्यों नहीं देश के सामने आ सकी है? प्रकृति लीला तो जारी रहेगी, विस्थापन से बचाव का कोई मुकम्मल खाका भी तो अमल में आना चाहिए।