बांग्लादेश में शेख हसीना के हाथों से सत्ता छिन चुकी है। वे इस समय भारत में शरण ली हुई हैं और जल्द ही यहां से भी निकलने की तैयारी में हैं। अब बांग्लादेश में जो हुआ, कई लोग इसे तख्तापलट मानते हैं। अब वैसे तो एक अंतरिम सरकार का गठन होना है, लेकिन क्योंकि सेना की सीधी भूमिका उसमें रहने वाली है, इस वजह से उसे तख्तापलट जैसा ही माना जा रहा है। इसके ऊपर क्योंकि सेना ने ही हसीना को देश से बाहर जाने का मौका दिया, इसे भी तख्तापलट का हिस्सा माना जा रहा है।
जहां सेना के पास असीमित ताकत, वहां तख्तापलट
इस समय गूगल पर एक सवाल कई लोग पूछ रहे हैं- क्या भारत में कभी तख्तापलट हो सकता है? क्या भारत की सेना भी कभी शासन कर सकती है? अब इसका एक सीधा जवाब है- नहीं। असल में जिन भी देशों में लोकतंत्र ज्यादा मजबूत रहता है, वहां पर सेना के पास असीमित शक्तियां नहीं रहती हैं, उन देशों में सेना सरकार के अनुसार ही काम करती दिखती है।
भारत की सेना नहीं पार करती लक्ष्मण रेखा
अब भारत की सेना का जैसा इतिहास रहा है, वहां पर अनुशासन ही सर्वोपरि है। उसका एक कारण यह है कि भारत की सेना के जो सिद्धांत हैं, वो पश्चिमी देशों से प्रभवित चलते हैं। असल में अंग्रेजों ने भारत पर राज किया, उनकी तमाम पॉलिसी का देश पर गहरा प्रभाव रहा, ऐसे में सेना भी इससे अलग नहीं रह पाई। छोटी-मोटी घटनाएं तो होती रहीं, कभी लगा कि सेना के अंदर भी बगावत हो सकती है, लेकिन एकजुटता का मंत्र ऐसा था कि इसने कभी भी सेना को लक्ष्मण रेखा पार करने नहीं दी।
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भारतीय सेना की नींव पश्चिमी देशों जैसी
ध्यान देने वाली बात यह भी है कि जो पश्चिमी देश हैं और जहां पर लोकतंत्र की स्थापना हुई है, वहां पर कभी भी तख्तापलट की कोई घटना नहीं देखी गई, इसी वजह से भारत भी उस दिशा में कभी आगे नहीं बढ़ा। यहां पर सेना ताकतवर जरूर रही है, लेकिन सरकार के अधीन भी है। एक दिलचस्प बात यह भी है कि 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों ने भारतीय सेना को जातियों में बांटना शुरू कर दिया था। उसी वजह से जाति आधारित रेजिमेंट तैयार की गई थीं। यह तो वो समय था जब जातियों के आधार पर ही अलग-अलग रजवाड़े भी बने हुए थे। लेकिन सेना की एकता में कोई कमी नहीं आई, वहां अनुशासन बना रहा।
मतभेद कितने भी, सेना रही एकजुट
इसी तरह 1946 में भारतीय नेवी में भी विद्रोह दिखा था, लेकिन तब क्योंकि कुल भारतीय सैनिकों की संख्या 25 लाख से भी ज्यादा हो चुकी थी, ऐसे में उस विरोध का असर ना के समान रहा और वो नाराजगी कोई बड़े आंदोलन का रूप नहीं ले पाई। कह सकते हैं कि तब भी सेना सभी मतभेदों से ऊपर उठकर एकजुट रही। वैसे भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को भी इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने अपने पहले कार्यकाल के दौरान ही सेना की शक्तियां स्पष्ट कर दी थीं। उन्होंने यहां तक साफ कर दिया था कि देश में हमेशा सुप्रीम तो सरकार ही रहने वाली है।
नेहरू लाए थे क्रांतिकारी बदलाव
इसे ऐसे समझ सकते हैं कि देश के जो पहले कमांडर एंड चीफ बनाए गए थे, उनका नाम जनरल करियप्पा था। इससे पहले तक यह पद अंग्रेजों के फौजियों के पास रहता था। लेकिन नेहरू ने बड़ा फैसला लेते हुए उस पद को ही खत्म कर दिया। उनका तर्क था कि सेना, नौसेना और वायुसेना की अहमियत समान है, ऐसे में तीनों को अलग-अलग प्रमुख मिलना जरूरी है। अब नेहरू ने यह फैसला तो लिया ही, इसके साथ-साथ उन्होंने साफ कर दिया कि रक्षा मंत्री का पद सबसे बड़ा रहेगा और तीनों ही सेना के प्रमुख उन्हें रिपोर्ट करेंगे। यहां भी ताकत का बंटवारा कुछ ऐसा रहा कि सेना कभी भी सरकार से बड़ी नहीं बन सकी।
आपातकाल के दौरान भी सेना नहीं तोड़ी मर्यादा
नेहरू ने ही एक और बड़ा कदम उठाते हुए तीन मूर्ति आवास को अपना आधिकारिक निवास स्थान बनाने का काम किया था। यह वो इलाका था जहां पहले कमांडर इन चीफ रहा करते थे। लेकिन क्योंकि सेना को सरकार के अधीन रखना था, ऐसे में नेहरू ने तीन मूर्ति मार्ग को ही अपना आधाकारिक आवास बना लिया। बाद में उन्होंने कमांडर इन चीफ का पद भी खत्म कर दिया। ऐसे में कहा जा सकता है कि नेहरू काल में ही एक ऐसे लोकतंत्र की नींव रख दी गई थी जहां पर सेना और सरकार की शक्तियां एक दूसरे से बिल्कुल अलग रखी गईं। इसका एक प्रमाण तो आपातकाल के दौरान भी दिख गया था।
उतार-चढ़ाव, समाधान सियासी ही
कई जानकार चाहते थे कि उस समय इंदिरा गांधी के खिलाप तीनों सेना प्रमुख को एक हो जाना चाहिए था, तब की पीएम से स्थिति को लेकर बात करनी चाहिए थी। लेकिन क्योंकि भारत में लोकतंत्र रहा और सेना ने खुद को राजनीति से अलग रखने का फैसला लिया, ऐसे में उस दौर में भी सेना ज्यादा ताकतवर दिखाई नहीं दी। माना जाता है कि तख्तापलट वही पर होता है जहां पर अस्थिरता बन जाती है, राजनीतिक दल खुद से कोई फैसला नहीं ले पाते। लेकिन भारत में कभी भी ऐसी स्थिति नहीं आई, अगर उतार-चढ़ाव आए भी तो उसके सियासी समाधान निकाले गए। ऐसे में सेना प्रयोग सिर्फ युद्ध, आतंरिक सुरक्षा तक सीमित रहा। इसी वजह से भारत और बांग्लादेश की कोई तुलना नहीं हो सकती, यहां पर कभी भी तख्तापलट वाली नौबत नहीं आ सकती।