जब दुनिया अपने इन तजुर्बों के साथ 21वीं सदी में दाखिल हुई तो उम्मीद थी कि लोकतंत्र और मानवीय सौहार्द की हरियाली हर जगह दिखाई पड़ेगी। पर यह उम्मीद जिस तरह मौजूदा सदी के दो दशक बीतते-बीतते एक बड़ी निराशा में तब्दील हुई और जो सिलसिला अब भी ठहरा नहीं है, वह मानवता के हिस्से दर्ज होने वाला एक बड़ा शोक है। इस शोक से उबारने का दारोमदार जिन कंधों पर रहा, वे या तो इस दौरान लगातार कमजोर साबित हुए या फिर हालात उनके खिलाफ गए। म्यांमा के नए संकट और नोबेल शांति पुरस्कार विजेता आंग सान सू की के रूप में शांति और लोकतंत्र से जुड़ी ऐसी ही एक बड़ी उम्मीद के बारे में तफ्सील से बता रहे हैं प्रेम प्रकाश।
इक्कीसवीं सदी का तीसरा दशक पूरी दुनिया में जिस अनुभव के साथ शुरू हुआ है, वह न सिर्फ मौजूदा दौर के लिए बल्कि भविष्य के लिए भी कई बड़े और निर्णायक संकेत लेकर आया है। गत वर्ष की जो छवि इतिहास की आंखों से शायद ही कभी ओझल हो, वह छवि कोरोना की मार और करुणा की दरकार के बीच इंसानी नफरत और उसके अराजक मिजाज की है।
म्यांमा में हाल में जिस तरह तख्तापलट की घटना हुर्ई है, वह इस चिंता का नया विस्तार है कि दुनिया में लोकतंत्र के लिए संघर्ष और मुश्किल हो गया है। आंग सान सू की ने इस संघर्ष का जिस तरह नेतृत्व किया, उसके लिए जिस तरह से यातनाएं भोगीं और सत्ता में आने के बाद लोकतंत्र बहाली के बीच रोहिंग्या हिंसा के मसले पर वो जिस तरह घिरींं, उनसे ग्लोब के एक छोटे से हिस्से को घेरने वाले देश के साथ उम्मीदों से भरे एक नेतृत्व को लेकर कई सवाल खड़े होते हैं।
संघर्ष को मान
सू की को नोबेल पुरस्कार देने का फैसला नोबेल फाउंडेशन ने 1991 में लिया था। पर तब वो नजरबंद थीं। 2012 में जब पुरस्कार लेते हुए उन्होंने दुनिया के आगे अपनी बात कही तो लगा शांति, मानवता और सबके लिए बराबरी का लोकतांत्रिक सिद्धांत आगे सफलता का नया प्रयोग बनने जा रहा है। इस उम्मीद के साथ न जाने कितने लेख और व्याख्यान दिए गए कि गांधी और मंडेला के बाद सू की विश्व के एक लिए एक बड़ी उम्मीद की तरह सामने आई हैं। नोबेल लेते हुए सू की ने इंसानी अस्मिता की बहाली की हिमायत करते हुए हिंसा की वैश्विक सनक को लेकर चिंता जताई थी।
उन्होंने कहा था, ‘पहले विश्व युद्ध को एक सदी बीत चुकी है। वो क्यों हुआ, आज तक इसका कोई सही-सही जवाब हम नहीं दे सके हैं। क्या हम भी कसूरवार नहीं हैं? थोड़े कम हिंसक ही सही, लेकिन दोष तो हमारा भी है। आने वाले कल और इंसानियत के मुताबिक हम सही फैसला नहीं कर सके। कसूर तो हमारा भी है। केवल जंग ही वो इकलौती जगह नहीं जहां शांति और सुकून का कत्ल होता है।
जहां कहीं भी लोगों की तकलीफें नजरंदाज की जाती हैं, वहां संघर्ष की पौध जमने लगती है तकलीफ और दर्द और कसीले होते जाते हैं। संघर्ष बढ़ता जाता है।’ नौ साल पहले जब सू की ये बातें कह रही थीं तो उसमें उनके अपने देश को लेकर वह पीड़ा भी सजल थी, जो तब समाज से लेकर शासन तक फौजी हिमाकत की गिरफ्त में थी। सू की, उनके संघर्ष और म्यांमा की आज की स्थिति एक ऐसे विरोधाभासी घटाटोप को रचता है, जिसमें शांति और लोकतंत्र की ललक खारिज नहीं तो कम से कम स्थगित होती तो दिख ही रही है।
सेना की मनमानी
म्यांमा की सत्ता पर फिर से सेना ने कब्जा कर लिया है। देश की सर्वोच्च नेता और स्टेट काउंसलर आंग सान सू की और राष्ट्रपति विन मिंट समेत कई आला नेता नजरबंद हैं। आजादी मिलने के बाद से म्यांमा पर ज्यादातर वक्तसेना का शासन रहा है। सेना की तानाशाही से देशवासियों को आजादी दिलाने और लोकशाही की बहाली के लिए सू की के दो दशक लंबे संघर्ष का हासिल एक बड़े शोक में बदलता दिख रहा है। और यह सब सिर्फ दक्षिण एशिया के लिए नहीं बल्कि दुनिया के लिए एक बड़ी उम्मीद का तिरोहन है।
दरअसल, म्यांमा में पिछले कुछ समय से सैन्य गतिविधियां अचानक बढ़ गई थीं, इसकारण वहां लोगों के मन में तख्तापलट की आशंका पहले से थी। आखिरकार यह आशंका सही भी साबित हो गई। अब राजधानी नेपीता की अहम इमारतों में सैनिक तैनात हैं। सड़कों पर बख्तरबंद गाड़ियां गश्त कर रही हैं। कई शहरों में इंटरनेट सेवा बंद है। ज्यादातर सरकारी इमारतों पर सेना का कब्जा है। टीवी चैनलों का प्रसारण भी बंद कर दिया गया है।
सत्ता और स्वीकृति
पिछले साल नवंबर में हुए चुनाव में संसद के संयुक्तनिचले और ऊपरी सदनों में सू की की पार्टी ने 476 सीटों में से 396 सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन सेना के पास 2008 के सैन्य-मसौदा संविधान के तहत कुल सीटों का 25 फीसद आरक्षित हैं। कई प्रमुख मंत्री पद भी सेना के हिस्से में हैं। नतीजे आने के बाद वहां की सेना ने इस पर सवाल खड़े कर दिए। सेना ने चुनाव में सू की की पार्टी पर धांधली करने का आरोप लगाया। यह आरोप आज उस हिकामत का हिस्सा है, जिसमें एक लोकप्रिय नेतृत्व वाली सरकार को फौजी बूटों के नीचे कुचल दिया गया।
सू की के जीवन को देखें तो उनके और उनके देश की हालत का एक ऐसा मंजर सामने आता है जिसमें उम्मीद और सफलता की ऊंचाई से गिरने की गहरी पीड़ा है। गौरतलब है कि म्यांमा को सैन्य तानाशाही से मुक्ति दिलाने के लिए सू की ने 1988 में संघर्ष शुरू किया। उनके नेतृत्व में 1989 में हजारों लोग लोकतंत्र की मांग को लेकर तब की राजधानी यंगून की सड़कों पर आ गए थे।
हालांकि, सेना की ताकत के आगे सू की का आंदोलन कमजोर पड़ गया था और उन्हें नजरबंद कर दिया गया। अगले 22 साल तक देश की कमान सेना के हाथों में ही रही। इनमें से 21 साल सू की नजरबंद रहीं। उनकी यह नजरबंदी नेल्सन मंडेला के संघर्ष का याद दिलाती है। आखिर में वो दिन आया, जब 2011 में देश की बागडोर सेना की जगह चुनी गई सरकार ने संभाली। सू की की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) ने चुनाव में बड़ी जीत हासिल की। संविधान के मुताबिक, वो राष्ट्रपति का चुनाव नहीं लड़ सकती थीं। इसलिए उनको स्टेट काउंसलर बनाया गया। संसद में सेना की मौजूदगी के लिए उसके प्रतिनिधि रखे गए।
लोकप्रियता को धक्का
2015 में हुए दूसरे चुनाव में भी सू की को जबरदस्त जीत मिली। हालांकि, कमजोर अर्थव्यवस्था, सरकार में सेना के वर्चस्व और रोहिंग्या मुसलमानों का मामला न संभाल पाने की वजह से उनकी लोकप्रियता गिरने लगी। हालात ऐसे हो गए कि 1988 में सेना के खिलाफ संघर्ष करने वाले कार्यकर्ता सू की की नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी के खिलाफ खड़े हो गए। खासतौर पर रखाइन प्रांत में गृहयुद्ध जैसे हालात बन गए। यहां सेना पर रोहिंग्याओं पर अत्याचार के आरोप लगे। वहां सेना ने अगस्त 2017 में रखाइन में खूनी अभियान चलाया था, इसमें हजारों रोहिंग्या मारे गए थे। यही नहीं, इस अल्पसंख्यक आबादी में से पांच लाख लोगों को देश छोड़कर पड़ोसी बांग्लादेश और अन्य देशों में भागना पड़ा था।
उम्मीद अभी बाकी
देश में हिंसा और रोहिंग्या के सवाल पर सू की देश के अंदर और बाहर लगातार घिरती गईं। खासतौर पर रखाइन प्रांत में वो हालात संभालने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा पार्इं। इसका फायदा सेना को मिला और वह सरकार के मुकाबले मजबूत होती गई। यह सू की के लिए ऐसे दोहरे संकट की तरह रहा, जिसका त्रासद हश्र आज हम म्यांमा में देख रहे हैं।
रोहिंग्या मुसलमानों पर अत्याचार के दौरान सू की की चुप्पी की दुनियाभर में आलोचना हुई। यहां तक कि उनसे नोबेल पुरस्कार वापस लेने के लिए बड़ा अभियान चला। बहरहाल, एक बात जो म्यांमा में तख्तापलट के साथ रेखांकित हुई है, वह यह कि लोकतंत्र की बात करने और लोकतांत्रिक ललक को तिलकित करने से ज्यादा बड़ा सवाल है लोकतांत्रिक व्यवस्था को हर लिहाज से कारगर बनाना। स्वीकृति की इस कसौटी पर सू की अंतिम तौर पर खरी उतरेंगी, यह उम्मीद म्यांमा की जनता के साथ पूरी दुनिया को है।