छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में बुधवार को सुरक्षाबलों ने मुठभेड़ में 12 नक्सलियों को मार गिराया। इस घटना में तीन जवानों की भी मृत्यु हो गयी। पुलिस अधिकारियों ने बुधवार को बताया कि बीजापुर–दंतेवाड़ा जिले की सीमा से लगे पश्चिम बस्तर डिवीजन इलाके में सुरक्षाबलों और नक्सलियों के बीच मुठभेड़ में 12 नक्सली मारे गए। इस मुठभेड़ में तीन जवानों की भी मृत्यु हो गई और दो जवान घायल हो गये। इससे पहले सीपीआई (माओवादी) के केंद्रीय समिति के सदस्य, इसके पोलित ब्यूरो के सदस्य और इसके वैचारिक स्रोत माने जाने वाले 70 वर्षीय मल्लोजुला वेणुगोपाल राव उर्फ सोनू ने अक्टूबर 2025 में महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में आत्मसमर्पण कर दिया।
1980 से प्रतिबंधित संगठन के भूमिगत कार्यकर्ता और मल्लोजुला कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी के छोटे भाई, राव ने इंडियन एक्सप्रेस को एक इंटरव्यू में बताया कि सीपीआई (माओवादी) एक असफल प्रयोग साबित हुआ और हथियार डालना ही आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता था। आत्मसमर्पण के समय राव के ऊपर एक करोड़ रुपये का इनाम था। उसने बताया कि सीपीआई (माओवादी) के महासचिव नंबाला केशव राव उर्फ बसवराजू मई में एक मुठभेड़ में मारे जाने के बाद इस विचार पर सहमत हो गए थे कि सशस्त्र संघर्ष को अस्थायी रूप से रोकना ही एकमात्र रास्ता है।
अपने परिवार की राजनीतिक पृष्ठभूमि के कारण आरएसयू में शामिल हुआ- नक्सली
युवावस्था में रेडिकल स्टूडेंट्स यूनियन (आरएसयू) में शामिल होने और फिर माओवादी बनने के सवाल पर मल्लोजुला वेणुगोपाल राव ने कहा, ” मैं अपने परिवार की राजनीतिक पृष्ठभूमि के कारण आरएसयू में शामिल हुआ। मेरे पिता एक स्वतंत्रता सेनानी थे और मेरी माँ प्रगतिशील विचारों की थीं। मेरे बड़े भाई कोटेश्वरलु (किशनजी) आरएसयू की स्थापना में एक प्रमुख व्यक्ति थे। तेलंगाना, खासकर उत्तरी तेलंगाना जहाँ दमनकारी सामंती जमींदारी व्यवस्था थी, वहां की सामाजिक परिस्थितियों ने भी मुझे आरएसयू में शामिल होने के लिए प्रेरित किया।”
राव ने आगे कहा, “मुझे 1980 में एहसास हुआ कि मैं पार्टी का सदस्य बन गया हूँ, जब मेरे वरिष्ठों ने मुझे बताया। मुझे खुशी हुई। तब से लेकर 13 अक्टूबर 2025 (राव ने 14 अक्टूबर को आत्मसमर्पण कर दिया) तक, मैंने सीपीआई (माओवादी) के सदस्य के रूप में विभिन्न स्तरों पर काम किया।”
50 साल तक जंगल में रहने का अनुभव
लगभग 50 साल तक जंगल में रहने के अनुभव के बारे में बताते हुए पूर्व नक्सली ने कहा, “वन आंदोलन मेरे जीवन का एक स्वर्णिम अध्याय रहा। मेरा जीवन उन लोगों के जीवन से जुड़ा हुआ है जिन्हें असभ्य माना जाता है, जिन्हें उपेक्षित सा माना जाता है। मैं उन लोगों से लगभग आधी सदी पहले मिला था। वे आदिवासी थे। वन विभाग द्वारा उन पर किए गए अत्याचार भयंकर थे। उनके पास न तो पर्याप्त भोजन था न ही कपड़े, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा उनकी पहुँच से बाहर थी।”
माओवादी पार्टी का मानना था कि जंगलों पर आदिवासियों का अधिकार होना चाहिए और वे ही उन संसाधनों के असली मालिक हैं। पार्टी ने उस क्षेत्र को उत्पीड़ित वर्गों के सशक्तिकरण के लिए शुरुआती बिंदु के रूप में चुना। ऐसे क्षेत्र में काम करके मुझे बहुत खुशी और संतुष्टि मिली लेकिन हमारी पार्टी पिछली आधी सदी में की गई गलतियों के कारण इस आंदोलन को आगे नहीं बढ़ा सकी।
