जिस उम्र में बच्चों को पेंसिल पकड़नी चाहिए, उस उम्र में वे कड़ी मेहनत करने को मजबूर हैं। बच्चों की निरक्षरता का यह कड़वा आंकड़ा 2011 की जनगणना की समीक्षा करने के बाद सामने आया है। जनगणना की समीक्षा करने से पता चला कि भारत में बाल मजदूरी में फंसे 7 से 14 साल की आयुवर्ग के करीब 14 लाख बच्चों को अपना नाम तक लिखना नहीं आता। जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर तीन में से एक बच्चा बाल मजदूरी की गिरफ्त में है और अक्षर ज्ञान से बिल्कुल वंचित है, जबकि भारत के संविधान में तीन दशक पहले बाल मजदूरी को खत्म करने की व्यवस्था की गई थी।
गैर-सरकारी संस्था क्राई (चाइल्ड राइट्स एंड यू) की ओर से की गई जनगणना की समीक्षा में पता चला है कि तीन में से एक बाल मजदूर छह महीने से भी ज्यादा समय तक मजदूरी करता है और अपने परिवार की आर्थिक मदद करने के कारण स्कूल का मुंह तक नहीं देख पाता। वहीं जनगणना में सीमांत मजदूरों की संख्या 20 लाख के करीब है जिन्हें मजदूरी के चलते अपनी पढ़ाई-लिखाई छोड़नी पड़ी थी।
इसके राज्यवार आकलन के मुताबिक, बिहार में 45 फीसद, राजस्थान व झारखंड में 40 फीसद और मध्य प्रदेश व आंध्र प्रदेश में 38 फीसद बाल मजदूर हैं। जनसंख्या के आंकड़ों में जल्दी स्कूल छोड़ देने और स्कूल जाकर पढ़ाई नहीं कर पाने वाले बच्चों की तादाद सबसे अधिक है। इसके कारण इन बच्चों को बड़े होने पर रोजगार से महरूम होना पड़ता है, जबकि सरकार मुफ्त और आवश्यक शिक्षा के अधिकार की छठीं वर्षगांठ मनाने जा रही है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद-32 बाल मजदूरी पर धीरे-धीरे प्रतिबंध लगाने की वकालत करता है और देश में यह कानून लागू हुए तीन दशक बीत चुके हैं। इसके बावजूद पढ़ाई-लिखाई के क्षेत्र में बच्चों की संख्या घटती जा रही है। क्राई की रिपोर्ट में बताया गया है कि बाल मजदूरी में फंसे 5 से 14 साल की आयुवर्ग के 65 लाख बच्चे कृषि और घरेलू उद्योगों में काम करते हैं जो इस आयुवर्ग के कुल बच्चों की जनसंख्या का 64.1 फीसद है। वहीं पिछले एक दशक में 5 से 9 साल की आयुवर्ग की श्रेणी में बाल मजदूरों की संख्या में 37 फीसद का बढ़ोतरी दर्ज हुई है।