रंग-बिरंगे फूलों से सजा बगीचा सुंदर दिखता है। क्या यह उतना अच्छा लगेगा अगर हम केवल सफेद फूल ही लगाएं? श्रीनगर के हब्बा कदल इलाके में एक मस्जिद में जुमे की नमाज के लिए जाते समय एक कमजोर सा दिखने वाला बूढ़ा व्यक्ति यही सवाल पूछता है। मोहम्मद यूसुफ खान के लिए कश्मीरी पंडित वे फूल हैं जो उस बगीचे में रंग और जीवन लाते हैं जिसे वह अपना घर-शहर ए खास में हब्बा कदल कहते हैं।
खान और हब्बा कदल के अन्य निवासियों का मानना है कि कश्मीरियत का विचार उन पड़ोसियों के बिना अधूरा है जिन्हें उन्होंने तीन दशक पहले खो दिया था और अब भी उनके लिए तरस रहे हैं। स्थानीय निवासी शफीका कहती हैं, ‘हम एक ही प्लेट में खाना खाते थे। अगर वे लौटेंगे तो हमें बहुत खुशी होगी। हमें उनकी याद आती है।’ हब्बा कदल वह स्थान है जहां खान बड़े हुए और साठ के दशक के मध्य से अब तक वहीं रहते हैं।
यह इलाका दशकों तक सांप्रदायिक सौहार्द और भाईचारे की मिसाल रहा है। यह एक ऐसी जगह है जहां मंदिरों में भजन-कीर्तन और मस्जिदों में उपदेश और अजान सुनाई देती हैं। नब्बे के दशक की शुरुआत में आतंकवादी गतिविधियां बढ़ने के कारण भक्ति गीतों के सुखदायक संगीत की जगह गोलियों की आवाज ने ले ली।
19 जनवरी इस क्षेत्र से कश्मीरी पंडित समुदाय के पलायन का दिन है जिन्हें घाटी में आतंकवाद फैलने के बाद अपनी मातृभूमि से बाहर निकाल दिया गया था। उन्होंने कहा, ‘हम साथ रहते थे, साथ खाते थे। वास्तव में हम अब भी यहां अपने पंडित भाइयों के साथ रह रहे हैं। कोई अंतर नहीं है। हम खुशी से रह रहे हैं। इस गली के एक तरफ मंदिर है और दूसरी तरफ मस्जिद है।’
खान कहते हैं, ‘हम सभी इंसान हैं। जो कोई भी एक व्यक्ति को चोट पहुंचाता है वह पूरी मानवता को चोट पहुंचाता है।’ पुराने अच्छे समय को याद करते हुए उन्होंने कहा कि कश्मीरी पंडित और मुस्लिम एक-दूसरे के लिए प्यार और सम्मान का मजबूत बंधन साझा करते थे।
उन्होंने कहा, ‘पहले के समय में हम बेफिक्र रहते थे। हम त्योहारों पर मंदिरों में जाते थे। वे हमें बधाई देने आते थे। हम वास्तव में उन्हें याद करते हैं।’ ‘निर्वासन दिवस’ एक महत्वपूर्ण दिन है जो कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडित समुदाय के जबरन विस्थापन की याद दिलाता है। यह उस दौरान समुदाय के सामने आने वाली कठिनाइयों और चुनौतियों की याद दिलाता है।
श्रीनगर में रहने वाले मुट्ठी भर कश्मीरी पंडित समुदाय के सदस्यों में से एक सुनील भी हैं जो अपने मुस्लिम पड़ोसियों के आश्वासन पर यहीं रुक गए थे। उन्होंने आतंकी धमकियों के आगे झुकने से इनकार कर दिया। चेहरे पर मुस्कान के साथ सुनील ने कहा, ‘मैं अपने जन्म के बाद से यहीं रह रहा हूं। हमने अपनी मातृभूमि नहीं छोड़ी या बाहर नहीं गए। मैं यहीं रहा, यहीं पढ़ाई की, शादी की और अब मेरे बच्चे हैं।’ हालांकि, जम्मू के मैदानी इलाकों और देश के अन्य हिस्सों में बड़े पैमाने पर पलायन के समय को याद कर उनके चेहरे की चमक फीकी पड़ जाती है।