कारगिल युद्ध के दौरान भारत न्यूक्लियर हमले की हवाई क्षमता विकसित करने में जुटा हुआ था। यह स्थिति पोकरण-2 के महज एक साल बाद ही आ गई थी। युद्ध के दौरान दोनों देशों के बीच बढ़े तनाव के कारण ही भारत ने सामरिक प्रतिरोध की तैयारी शुरू कर दी।
इसके लिए भारतीय वायुसेना के मिराज-2000 लड़ाकू विमान को चुना गया था। संभावित हमले के लिए न्यूक्लियर हथियार को मिराज-2000 के मुख्य हिस्से में फिट किया गया था। हालांकि, करगिल में युद्ध नियंत्रण रेखा तक ही सीमित था लेकिन भारत किसी भी तरह का जोखिम नहीं लेना चाहता था।
देश ने भले ही 1998 तक पांच न्यूक्लियर टेस्ट कर लिए थे और घोषित न्यूक्लियर पावर बन गया लेकिन इसे विकसित करने, न्यूक्लियर फोर्स को तैनात करने आदि के संबंध में प्रक्रिया अभी तय होनी थी। वास्तव में, करगिल युद्ध के बाद अगस्त 1999 में न्यूक्लियर सिद्धांत का पहला मसौदा जारी किया जाना था।
संडे एक्सप्रेस ने इस तैयारी से जुड़े चार रिटायर्ड अधिकारियों से बातचीत की। पहले अधिकारी ने बताया कि 1998 के बाद ही हमने सामरिक प्रतिरोध तैयार करने की तैयारी शुरू कर दी थी। इसका आशय राजनीतिक स्तर पर फैसला लेने का बाद प्रमाणिक न्यूक्लियर हथियार, विश्वसनीय डिलीवरी क्षमता को वास्तविक रूप से देने के लिए फूलप्रूफ प्रक्रिया की जरूरत थी।
दूसरे अधिकारी ने कहा, ‘हथियार का परीक्षण कर लिया गया था और हम इसको लेकर पूरी तरह विश्वस्त थे।’ रिटायर्ड सैन्य अधिकारी ने बताया कि न्यूक्लियर हथियार की केसिंग को मिराज-2000 एयक्राफ्ट की मेन बॉडी में फिक्स किया गया था। उस जगह पर सेंट्रल वेंट्रल फ्यूल टैंक होता है।
ये सभी बदलाव स्थानीय रूप से किए गए थे। बदलाव के बाद मिराज के उड़ान भरने के कोण में 3-4 डिग्री से का बदलाव किया गया था। चौथे अधिकारी के अनुसार एयरक्राफ्ट के साथ न्यूक्लियर को लोडिंग करने की प्रक्रिया का अभ्यास भी कर लिया गया था। 26 जुलाई को कारगिल युद्ध खत्म होने के बाद भी अगस्त 1999 तक सुधार जारी थे। चौथे अधिकारी ने यह भी बताया कि सामान्य रूप से न्यूक्लियर हथियार 200 से 500 फीट की ऊंचाई से गिराए जाते हैं।

