वर्तमान समय में तकनीक का विकास सभी क्षेत्रों में हुआ है। यह कामकाज से लेकर रोजमर्रा के जीवन और सांस्कृतिक अवसरों पर भी एक अनिवार्य पक्ष के रूप में आम गतिविधियों में घुल रहा है। इसके एक स्वरूप यानी ‘डीजे’ की बात करें तो आज यह महज एक संगीत बजाने वाला यंत्र या उपकरण मात्र नहीं रह गया है, बल्कि संस्कृति का हिस्सा बनता जा रहा है।

कोई भी धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक समारोह हो, डीजे के बिना मानो सब कुछ अधूरा-अधूरा लगता है। एक डीजे से जैसे कार्यक्रम का जोर-शोर से आगाज हो जाता है, लेकिन यह साफ दिखता है कि इसे काम में लेने का तरीका खोता जा रहा है। लगभग दो वर्ष पहले महाराष्ट्र में जलगांव के नासिक जिले के पालधी गांव से जब एक समुदाय का परंपरागत जुलूस गुजरा तो वहां झड़प हो गई और हिंसा के बाद सख्ती बढ़ाई गई।

वडोदरा में एक बारात में डीजे बजने और पटाखे फोड़ने पर खूनी संघर्ष हुआ था

किसी उत्सव या आयोजन की वजह से सरकारी सख्ती बढ़ाने की नौबत आए, यही अपने आप में विडंबना है। कुछ समय पहले गुजरात के वडोदरा में भी एक बारात में डीजे बजने और पटाखे फोड़ने पर मामूली कहासुनी के बाद विवाद और फिर खूनी संघर्ष में बदल गया। इसके बाद काफी लोगों को गिरफ्तार किया गया। ऐसे में हम सोच सकते हैं कि व्यक्तिगत, समाज की और राष्ट्र की कितनी हानि होती है। ये मात्र कुछ उदाहरण हैं, लेकिन अब हर छोटे-बड़े शहर, कस्बे, गांवों में तेज स्वर में बजने वाली संगीत यंत्र की धमक पहुंच चुकी है।

किसी भी मौके पर यात्राओं या जुलूस में दिखावे के साथ-साथ परंपरागत आयोजनों को एक विचित्र उत्सव में तब्दील करके आध्यात्मिता को कलुषित करते हुए कानफाड़ू डीजे के आगे युवा यों मस्ती में थिरकते या झूमते हैं कि पर्व के धार्मिक होने का कोई महत्त्व ही नहीं रह जाता है। ऐसे में कई बार वे अपनी एकता और संस्कृति को महान दिखाते हुए दूसरे धर्म या जाति को कमतर दिखाने की प्रवृत्ति का खुलकर प्रदर्शन करते हैं। सवाल है कि ऐसी हरकतों का स्रोत क्या होता है!

आग में घी का काम करते हैं संगीत यंत्रों पर भड़काऊ गीत, नारे, भाषण

यों सामाजिक दुराव या दुराग्रहों के बीज ऐसे अवसरों पर विस्फोट की तरह फूटते हैं और हिंसा का रूप ले लेते है। संगीत यंत्रों पर भड़काऊ गीत, नारे, भाषण आग में घी का काम करते हैं। स्थिति बिगड़ने पर पुलिस, प्रशासन सामूहिक उत्सवों को शांति से आयोजित करने की अपील करता है। सीसीटीवी कैमरे लगाए जाते हैं। पुलिस या सुरक्षा बलों की ओर से ‘फ्लैग मार्च’ किया जाता है।

अंत में कई बार हालात के काबू में आने तक के लिए धारा 144 भी लगानी पड़ती है। ऐसी स्थिति में कई प्रकार की अफवाहें भी चलती रहती हैं, जिन पर ध्यान देना स्थिति को भड़काने का ही काम करता है। जन प्रतिनिधि घोषणा करते हैं कि गड़बड़ी करने वालों को किसी भी कीमत पर बख्शा नहीं जाएगा, चाहे वह कोई भी हो। यानी जो पर्व आनंद और सौहार्द के लिए मनाया जाना चाहिए, वह तनाव और आंसुओं में बदल जाता है।

सरकार की ओर से ध्वनि प्रदूषण (विनियमन और नियंत्रण कानून, 2000) के अंतर्गत रात्रि दस बजे से सुबह छह बजे तक लाउडस्पीकर और डीजे बजाने पर रोक है। कई बार मरीजों, छोटे बच्चों, परीक्षा की तैयारी कर रहे परीक्षार्थियों, बूढ़े लोगों, आम लोगों और जानवरों को इससे काफी दिक्कत होती है। लेकिन इसे लोग टालते रहते हैं। ऐसे में इसकी पुनरावृत्ति होती जाती है। कई राज्य सरकारें विशेष अनुमति लेने पर रात्रि बारह बजे तक इसे चलाने की अनुमति देती हैं।

कान के चिकित्सक यह सलाह देते हैं कि आज काफी युवाओं में सुनने की शक्ति पर काफी प्रभाव पड़ा है। युवाओं द्वारा मोबाइल के ‘ईयरफोन’ का लगातार प्रयोग किया जाना भी खतरनाक साबित हो रहा है। इसकी वजह से कितने हादसे हो चुके हैं। रही-सही कसर तेज आवाज में बजने वाले डीजे पूरी कर दे रहे हैं। अब काफी संख्या में लोगों में सुनने की समस्या आ रही है। स्थिति यह है कि बीस-पच्चीस डेसिबल की आवाज भी युवाओं और बच्चों को सुनने की दिक्कत आ रही है। धीरे-धीरे या स्थिर से बोलने पर आवाज न समझ में आना अब आम होता जा रहा है।
यहां तक पहुंचने से पहले ही सचेत हो जाना चाहिए।

बहरेपन से बचने के लिए तेज आवाज में बजने वाले हार्न, डीजे और लाउडस्पीकर की तेज आवाज से दूर रहना चाहिए। चिकित्सकों का कहना है कि सुनने में थोड़ी भी दिक्कत होने की दशा में तत्काल चिकित्सक से परामर्श लेना चाहिए। यह एक ऐसी समस्या है जो कि हमने खुद पैदा की है। संयमित रहकर हम इस समस्या से निजात पा सकते हैं। यों कहें कि हम इस समस्या की जड़ को ही न उगने दें। नियमों का पालन, उत्सवों की गरिमा और आपसी भाईचारे को मजबूत करने से ही हम अपनी उत्सवधर्मिता को बचा पाएंगे। इसके साथ-साथ थोड़ा नियंत्रण और सद्भाव हमारी सेहत को भी बेहतर स्वरूप दे सकता है।