भारत के संविधान निर्माता डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर की 133वीं जयंती पर आज पूरा देश उनको श्रद्धांजलि दे रहा है। 14 अप्रैल 1891 में एक गरीब महार परिवार में पैदा हुए डॉ. अंबेडकर स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री, अधिवक्ता, राजनीतिज्ञ थे। वह बौद्ध धर्म पर विश्वास करते थे और अपने साथ के लोगों से भी बौद्ध धर्म को अपनाने का आग्रह करते रहे हैं। डॉ. बीआर अंबेडकर के जीवन में बहुत सारे उदाहरण और उल्लेखनीय विचार हैं, जिन्होंने हमारे स्वतंत्र राष्ट्र को आकार देने पर एक अमिट छाप छोड़ी – जिनमें से सबसे प्रमुख उत्पीड़ित वर्गों के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व पर उनके विचार हैं, जो सबसे पहले 100 साल पहले, 1919 में सामने आए।
पूरा जीवन भेदभाव के कठोर अनुभवों से भरा रहा
भारत में अंबेडकर एक ‘अछूत’ व्यक्ति के रूप में पले-बढ़े और उनका जीवन जाति-आधारित भेदभाव के कठोर अनुभवों से भरा रहा। जबकि यह उनके अनुभवों की समग्रता थी, जिसने उन्हें इतिहास का रास्ता हमेशा के लिए बदलने के लिए प्रेरित किया, यह बड़ौदा में एक अधिकारी के रूप में उनका छोटा सा कार्यकाल था जिसने उनके जीवन की दिशा बदल दी और इसे उत्पीड़ित जातियों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। भारतीय जीवनी लेखक धनंजय कीर ने अपनी पुस्तक ‘डॉ. अंबेडकर: जीवन और मिशन’, 1954 में लिखा है कि 1913 में जब महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ तृतीय ने बड़ौदा रियासत पर शासन किया तो अंबेडकर को न्यूयॉर्क में कोलंबिया विश्वविद्यालय में अध्ययन करने के लिए छात्रवृत्ति से सम्मानित किया गया।
महालेखाकार कार्यालय में प्रोबेशनर अधिकारी रहे
समझौते के चार साल बाद बाबा साहेब बड़ौदा लौट आए और 1917 में महाराजा द्वारा उन्हें महालेखाकार कार्यालय में प्रोबेशनर अधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया। लेकिन शहर में उनका प्रवास बहुत संक्षिप्त रहा, क्योंकि अस्पृश्यता के आधार पर उनके साथ होने वाले दुर्व्यवहार ने उन्हें एक महीने में वापस चले जाने के लिए मजबूर किया।
बड़ौदा में पारसी सराय में रहने का सुझाव
बड़ौदा में एक प्रोबेशनर व्यक्ति के रूप में वह आवास की तलाश में थे जब उन्हें एक पारसी सराय में रहने का सुझाव दिया गया। अपने आत्मकथात्मक लेख वेटिंग फॉर ए वीज़ा में अंबेडकर ने लिखा: “यह सुनकर कि यह पारसियों द्वारा संचालित एक सराय थी, मेरा दिल खुश हो गया। वे पारसी धर्म के अनुयायी हैं। उनके द्वारा मेरे साथ अछूत जैसा व्यवहार किये जाने का कोई डर नहीं था, क्योंकि उनका धर्म छुआछूत को मान्यता नहीं देता है।”
सराय केवल पारसी लोगों के लिए खुली थी
हालांकि, उन्हें इस बात का एहसास नहीं था कि सराय केवल पारसी आगंतुकों के लिए खुली थी। जब वह कपड़े बदल रहे थे तो उन्हें इस वास्तविकता का सामना करना पड़ा। इस दौरान देखभाल करने वाले की नजर उनके कपड़ों पर पड़ी। उसने उन्हें आधे कपड़े पहने हुए देखा और नोटिस किया कि पारसी धर्म की खास पहचान मानी जाने वाली सदरा और कस्ती वे नहीं पहने हैं। अंबेडकर ने लिखा, “इस बात से अनजान कि यह सराय पारसी समुदाय वालों ने केवल पारसियों के उपयोग के लिए बनाई है, मैंने उन्हें बताया कि मैं एक हिंदू हूं। इस पर वह चौंक गया, और मुझसे कहा कि मैं सराय में नहीं रह सकता… सवाल फिर लौट आया, कहां जाऊं?”
रजिस्टर में पारसी नाम लिखने पर हल हुई समस्या
सौभाग्य से सराय रजिस्टर में पारसी नाम लिखने के बाद उनकी समस्या हल हो गई और उन्हें अपना प्रवास जारी रखने की अनुमति मिल गई। लेकिन यह भी अल्पकालिक रहा। अपने लेखों में अंबेडकर एक पारसी का रूप धारण करके सराय में रहने को एक अकेले और एकांत अनुभव के रूप में याद करते हैं। उन्होंने लिखा, “मुझे लगा कि मैं कालकोठरी में हूं, और मैं बात करने के लिए किसी इंसान के साथ की चाहत रखता हूं। लेकिन वहां कोई नहीं था।”
अपने प्रवास के ग्यारहवें दिन वह पुस्तकालय के लिए अपने कमरे से बाहर निकलने ही वाला था, तभी उसने काफी संख्या में लोगों के कदमों की आहट सुनी। अंबेडकर ने अपने विवरण में लिखा, “मैंने सोचा कि वे पर्यटक थे जो ठहरने के लिए आए थे… तुरंत मैंने गुस्से में दिखने वाले, लंबे, मजबूत एक दर्जन पारसियों को देखा, जिनमें से प्रत्येक एक छड़ी से लैस था, मेरे कमरे की ओर आ रहा था। मुझे एहसास हुआ कि वे साथी पर्यटक नहीं थे… वे मेरे कमरे के सामने खड़े हो गये और सवालों की झड़ी लगा दी।” अंबेडकर लिखे, “आप कौन हैं? आप यहां क्यूं आए थे? तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई पारसी नाम लेने की? तुम बदमाश हो! आपने पारसी सराय को प्रदूषित कर दिया है!”
इस घटना के बाद अंबेडकर ने सराय खाली कर दी, और इस सूचना पर एक और आवास खोजने की सभी उम्मीदें समाप्त हो जाने पर उन्होंने बंबई के लिए रात 9 बजे की ट्रेन पकड़ने का फैसला किया। ट्रेन रवाना होने तक उनके पास पांच घंटे बचे थे और उन्होंने ये घंटे एक सार्वजनिक उद्यान – कामठी बाग में एक बेंच पर बैठकर बिताए।
अंबेडकर की बड़ौदा वापसी, और उस स्थान से उनका जबरन प्रस्थान, जिसके लिए वे प्रतिबद्ध थे और जिसके लिए उन्होंने कई प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया था, उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण समय था – एक ऐसा जीवन जिसे उन्होंने अंततः सामाजिक वर्गों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने लिखा, “दर्जनों पारसियों का यह दृश्य, जो लाठियों से लैस होकर मेरे सामने खतरनाक मुद्रा में खड़े थे, और मैं उनके सामने भयभीत दृष्टि से दया की भीख मांगता हुआ खड़ा था, एक ऐसा दृश्य है जिसे अठारह वर्ष की लंबी अवधि में भी ख़त्म करने में सफलता नहीं मिली है। मैं अब भी इसे स्पष्ट रूप से याद कर सकता हूं… तब मुझे पहली बार पता चला कि जो व्यक्ति हिंदू के लिए अछूत है, वह पारसी के लिए भी अछूत है।”