Devdutt Pattanaik on Arts & Culture: (द इंडियन एक्सप्रेस ने UPSC उम्मीदवारों के लिए इतिहास, राजनीति, अंतर्राष्ट्रीय संबंध, कला, संस्कृति और विरासत, पर्यावरण, भूगोल, विज्ञान और टेक्नोलॉजी आदि जैसे मुद्दों और कॉन्सेप्ट्स पर अनुभवी लेखकों और स्कॉलर्स द्वारा लिखे गए लेखों की एक नई सीरीज शुरू की है। सब्जेक्ट एक्सपर्ट्स के साथ पढ़ें और विचार करें और बहुप्रतीक्षित UPSC CSE को पास करने के अपने चांस को बढ़ाएं। पौराणिक कथाओं और संस्कृति में विशेषज्ञता रखने वाले प्रसिद्ध लेखक देवदत्त पटनायक ने अपने इस लेख में भारत में लोहे की धातु के इतिहास और बदलावों पर विस्तार से चर्चा की है।)
आजकल हम लोहे और इस्पात को सामान्य बात मानते हैं लेकिन यह पूछना ज़रूरी है कि दुनियाभर में लोहा पहली बार कब आया? कांस्य युग के बारे में तो सभी ने सुना है। उत्तर-पश्चिम भारत के हड़प्पा शहर कांस्य युग के शहर थे जो तांबे और कांसे की नींव पर बने थे लेकिन यह बहुत संभव है कि वैश्विक लौह युग की शुरुआत भारत से हुई हो।
मेसोपेटोमिया को लेकर दिए जाते हैं तर्क
कई इतिहासकारों का मानना है कि लोहे को गलाने का ज्ञान मेसोपोटामिया के उत्तर में अनातोलिया (आधुनिक तुर्की) से आया और पूर्व की ओर फैला लेकिन यह धारणा सही नहीं हो सकती। इस बात के प्रमाण बढ़ रहे हैं कि भारत में लोहे को स्वतंत्र रूप से गलाया जाता था। वास्तव में तमिलनाडु के स्थलों से पता चलता है कि लोग 3000 ईसा पूर्व से ही लोहे को गला रहे होंगे।
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यह दावा तमिलनाडु में हुई कुछ पुरातात्विक खोजों से समर्थित माना जाता है:
- मयिलादुम्पराई (कृष्णागिरी जिला) – 2172 ईसा पूर्व या उससे पहले की रेडियोकार्बन तिथियों से लोहे की कलाकृतियां और भट्टियां पता चलती हैं जो लोहे के उपयोग के विश्व के सबसे पुराने ज्ञात उदाहरणों में से एक का संकेत देती हैं।
- पैय्यमपल्ली (वेल्लोर जिला) – उत्खनन से नवपाषाण काल से लौह युगीन संस्कृति में परिवर्तन का पता चलता है, जिसमें लगभग 1500 ईसा पूर्व के अवशेष और लोहे की वस्तुएं मिली हैं।
- आदिचनल्लूर (थूथुकुडी जिला) – दफन स्थल और लावा साक्ष्य लगभग 1500 और 1000 ईसा पूर्व के बीच उन्नत धातु विज्ञान और लौह उपकरण के उपयोग का संकेत देते हैं।
ऋगवेद में लोहे का जिक्र नहीं
इसको लेकर सभी मानते थे कि भारत में लौह युग वैदिक काल में शुरू हुआ था। ऋग्वेद में लोहे का ज़िक्र नहीं है। इसमें केवल अयस का ज़िक्र है, जिसका अर्थ संभवतः तांबा या कांसा था लेकिन अथर्ववेद के समय तक, हमें “कृष्ण अयस” या काली धातु का ज़िक्र मिलता है, जिससे पता चलता है कि लोहा लगभग 1000 ईसा पूर्व से ही ज्ञात था।
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लोहे से पहले कांस्य क्यों आया?
इसके महत्व को समझने के लिए हमें कांसे और लोहे के बीच के अंतर को समझना होगा। पाषाण युग के बाद धातु युग आया। तांबा अपेक्षाकृत दुर्लभ है लेकिन आसानी से पिघल जाता है। कांसा, तांबे और टिन का मिश्रधातु है। टिन भी दुर्लभ है। लोहा प्रचुर मात्रा में है, लेकिन उसे पिघलाना बहुत मुश्किल है। यही कारण है कि मानव इतिहास में ताम्र युग और कांस्य युग पहले आते हैं, और लौह युग बाद में आते हैं।
मध्य एशिया में तांबा और टिन दोनों उपलब्ध थे और इनके संयोजन से कांसा बनता था। हड़प्पावासियों के पास इस कांसे की तकनीक तक पहुंच थी और शायद उन्होंने इस पर एकाधिकार भी कर लिया था। वे कांसे और तांबे के सामान छोटी नावों में फारस की खाड़ी तक ले जाते थे, और वहां से ये सामान मेसोपोटामिया के मंदिरों में पहुँचते थे। यहां कांसे को एक पवित्र और मूल्यवान वस्तु माना जाता था। मेसोपोटामिया से ही कांसा मिस्र पहुंचा था।
पहले कांसा माना जाता था जादुई
आज हम कांसे को भले ही सामान्य मानते हों लेकिन उस ज़माने में यह दुर्लभ और लगभग जादुई था। इसका इस्तेमाल पहले अनुष्ठानों और शिल्पकला के लिए किया जाता था, न कि रोज़मर्रा के औज़ारों के लिए। हड़प्पा में भी कांसे के साथ-साथ पत्थर के औज़ारों का इस्तेमाल जारी रहा, जिससे पता चलता है कि कांसा एक विलासिता की वस्तु थी। हड़प्पा के शहरों में लोहे के कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलते। उस दौरान हड़प्पा का पतन हो रहा था भारत में लोहे को गलाया जा रहा था।
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हड़प्पा नगरों का पतन कांसे के पतन से गहराई से जुड़ा है। इसके तीन कारण स्पष्ट हैं:
- पहला, आपूर्ति में कमी: जो व्यापारी कभी मध्य एशिया से टिन लाते थे, उन्हें सिंधु नदी को पार करते हुए एलाम (तटीय ईरान) के माध्यम से मेसोपोटामिया तक पहुंचने का एक छोटा भूमि मार्ग मिल गया।
- दूसरा, मांग में कमी: अक्कादियन साम्राज्य जिसने सुमेरियों का स्थान लिया, ने हड़प्पा की विदेशी वस्तुओं को उतना महत्व नहीं दिया जितना सुमेरियों ने दिया था।
- और तीसरा, जलवायु परिवर्तन ने नदियों के स्वरूप को बदल दिया, जिससे सिंधु शहरों को बनाए रखना कठिन हो गया।
अतः हड़प्पा की कहानी केवल ईंटों और नालियों के बारे में नहीं है, बल्कि तांबे, टिन और कांसे के बारे में भी है।
भारत में लोहे का इतिहास
जब हड़प्पा सभ्यता लुप्त हो रही थी तब भारत में लोहे को गलाने का काम चल रहा था। पूर्वी गंगा के मैदानों में यह काम तेजी से हो रहा था लेकिन उससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि पूरे दक्षिण भारत में, लोहे के प्रारंभिक स्थल पाए गए हैं। पुरातत्वविदों को उन्हीं क्षेत्रों में लोहा मिला है जहां राख के टीले और महापाषाण स्थित हैं। राख के टीले, जले हुए गोबर के विशाल भंडार होते हैं, जो कभी-कभी 100 मीटर चौड़े और कई मीटर ऊँचे होते हैं, जो पीढ़ियों से बनते आ रहे हैं।
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हमें नहीं पता कि दक्कन के चरवाहों ने इन्हें क्यों बनाया लेकिन ज़ाहिर है कि आग उनकी संस्कृति का केंद्रबिंदु थी। आग में इसी रुचि ने उन्हें मिट्टी पकाने और अयस्क गलाने के प्रयोग करने में मदद की होगी।
भारत के प्रारंभिक लौह युग के बारे में उभरते साक्ष्य
यह भी संभव है कि लगभग 1500 ईसा पूर्व भारत आए आर्य लोहे के व्यापार की संभावना से आकर्षित हुए हों। तमिलनाडु के कीलाडी में हुए उत्खनन से वैगई नदी के तट पर एक नगरीय सभ्यता का पता चलता है, जहां 600 ईसा पूर्व के लौह उत्पादन के प्रमाण मिले हैं। उल्लेखनीय है कि भारत वूट्ज़ स्टील का भी जन्मस्थान था जिसका विकास लगभग 500 ईसा पूर्व दक्कन क्षेत्र में हुआ था। यह विकास संभवतः प्रगलन, मिश्रधातु निर्माण आदि के पूर्व ज्ञान का परिणाम था।
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इस स्थल पर मिली खोजें हड़प्पाकालीन दुनिया की याद दिलाती हैं, लाल और काले मिट्टी के बर्तन, कार्नेलियन मोती, व्यवस्थित सड़कें, जल और मल प्रबंधन, यहाँ तक कि हड़प्पाकालीन चिन्हों की याद दिलाने वाले प्रतीक भी शामिल हैं। इन नए निष्कर्षों पर अभी भी बहस चल रही है, और राजनीति अक्सर सबूतों को धुंधला कर देती है लेकिन जैसे-जैसे और अधिक उत्खनन और अध्ययन सामने आएंगे, भारत के प्रारंभिक लौह युग के बारे में हमारी समझ में बदलाव आना तय है।
