सुप्रीम कोर्ट ने मुसलिम महिलाओं के प्रति लिंग भेद सहित विभिन्न मसलों को लेकर स्वत: ही शुरू की गई जनहित याचिका में शुक्रवार को मुसलिम संगठन जमीअत उलमा-ए-हिंद को पक्षकार बनने की अनुमति दे दी। मुख्य न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर, न्यायमूर्ति एके सीकरी और न्यायमूर्ति आर भानुमति की तीन सदस्यीय पीठ ने केंद्र और इस संगठन को छह हफ्ते के भीतर अपना जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया।

इस मामले में न्यायालय ने अटार्नी जनरल और राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण को नोटिस जारी किए थे। जमीअत उलेमा-ए-हिंद ने अपने आवेदन में तर्क दिया है कि सुप्रीम कोर्ट मुसलिम पर्सनल लॉ में प्रचलित शादी, तलाक और गुजारा भत्ते के चलन की संवैधानिक वैधता की परख नहीं कर सकता है। क्योंकि पर्सनल कानूनों को मौलिक अधिकारों के सहारे चुनौती नहीं दी सकती है।

इस संगठन ने कहा है कि पर्सनल ला को इस आधार पर वैधता नहीं मिली है कि इन्हें किसी कानून या सक्षम अधिकारी ने बनाया है। पर्सनल ला का मूलभूत स्रोत उनके अपने धर्मग्रंथ हैं। मुसलिम कानून मूलरू प से पवित्र कुरान पर आधारित है और इसलिए यह संविधान के अनुच्छेद 13 में उल्लिखित लागू कानून की अभिव्यक्ति के दायरे में नहीं आ सकता और इसलिए इसकी वैधता को संविधान के भाग-तीन के आधार पर दी गई चुनौती पर नहीं परखा जा सकता।

शीर्ष अदालत ने महिलाओं के साथ होने वाले पक्षपात के मामले में जनहित याचिका दर्ज करने का आदेश देते हुए प्रधान न्यायाधीश से मुसलिम महिला (तलाक होने पर अधिकारों का संरक्षण) कानून को चुनौती देने से संबंधित मसलों पर गौर करने के लिए विशेष पीठ गठित करने का अग्राह किया था।

यह मसला हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) कानून से संबंधित मामले की सुनवाई के दौरान उठा और पीठ ने पाया कि इसमें लिंग आधारित पक्षपात का एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है, हालांकि यह मसला सीधे इस अपील से संबंधित नहीं था। न्यायलय ने कहा कि विभिन्न पक्षकारों के कुछ वकीलों ने यह मुद्दा उठाया है जो मुसलिम महिलाओं के अधिकारों से जुड़ा है।

लिंग के आधार पर पक्षपात पर चर्चा के दौरान यह मुद्दा भी उठा। न्यायालय ने इस तथ्य का भी संज्ञान लिया कि संविधान में अधिकारों के संरक्षण की गारंटी के बावजूद मुसलिम महिलाओं के साथ पक्षपात हो रहा है। मनमाने तरीके से तलाक देने और पहली शादी के अस्तित्व में रहते हुए पति के दूसरी शादी करने और इस वजह से ऐसी महिला को सम्मान और गरिमा के साथ जीवन गुजारने से वंचित करने के मामले में मुसलिम महिलाओं के हितों की रक्षा नहीं हो रही है।