सवाल यह है कि क्या भावनाओं के ज्वार-भाटे पर नियंत्रण रख पाना इतना आसान है ? यदि यह इतना आसान होता तो हमारी बहुत सारी समस्याओं का समाधान स्वत: ही हो जाता। हमें न तो किसी मनोचिकित्सक की जरूरत पड़ती और न ही उपदेश देने वाले किसी बाबा या साधु की। कहने में यह जितना आसान है, व्यावहारिक रूप से उतना ही मुश्किल। यह बिल्कुल उसी तरह है कि जैसे किसी दुर्घटना के समय सब कुछ अचानक घटित हो जाता है। हम पहले से यह सोचते रहते हैं कि बहुत संभल कर और सावधानी के साथ अपना वाहन चलाएंगे लेकिन जब दुर्घटना होती है तो हमारी सारी सावधानी धरी रह जाती है।

बिल्कुल इसी तरह हम पहले से अपनी भावनाओं के जवार-भाटे पर नियंत्रण करने के बारे में सोचते रहते हैं लेकिन जब भावनाओं का ज्वार-भाटा आता है तो हमारी सारी सावधानी धरी रह जाती है। इसका अर्थ यह है कि जीवन में बहुत सारी प्रक्रियाएं बिल्कुल उसी तरह और उसी रूप में नहीं होती हैं, जैसा हम उन्हें सोचते हैं। जीवन के किसी न किसी मोड़ पर कोई न कोई छोटी-मोटी दुर्घटना होती ही है। यह जरूर है कि यदि हम जीवन में कई स्तरों पर छोटी-छोटी सावधानियां रखते है तो किसी बड़ी दुर्घटना से बच जाते हैं।

दरअसल जब भावनाओं का ज्वार-भाटा आता है तो कभी-कभी वह बहुत कुछ बहाकर ले जाता है। उस समय हमें यह पता नहीं चलता है कि हम क्या खो चुके हैं। लेकिन धीरे-धीरे सारी तस्वीर साफ होने लगती है। जब हमें यह पता चलता है कि हम कुछ खो चुके हैं तो बहुत देर हो चुकी होती है। आप कहेंगे कि दु:ख-सुख रूपी भावनाओं के माध्यम से भला क्या खोया जा सकता है? सच्चाई यह है कि जब हम भावनाओं के ज्वार-भाटे से जूझ रहे होते हैं तो स्थिर नहीं रह पाते हैं।

यही कारण है कि कभी-कभी हम सामान्य व्यवहार नहीं कर पाते हैं। हालांकि ऊपरी तौर पर हम सामान्य दिखाई देते हैं लेकिन भावनाओं के ज्वार-भाटे के कारण अंदर एक मानसिक संघर्ष चलता रहता है। इस कारण हमारा व्यवहार सामान्य नहीं होता है। इसीलिए भावनाओं का ज्वार-भाटा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमारी जिंदगी को किसी न किसी रूप में प्रभावित करता है।

तो फिर इस प्राकृतिक प्रक्रिया या समस्या का हल क्या है ? क्या हम इस प्राकृतिक प्रक्रिया को ऐसे ही चलने दें और इससे इसी तरह प्रभावित होते रहे? यह देखने में आया है कि ऐसी व्यावहारिक प्रक्रियाएं अपनी गति से चलती रहती हैं लेकिन यदि हम थोड़ी सी सावधानी रखे तो इन प्रक्रियाओं की गति कुछ कम की जा सकती है। जिंदगी के सफर में इन प्रक्रियाओं की कम गति भी हमें काफी राहत प्रदान करती है। सबसे बड़ी सावधानी यही है कि हम दु:ख-सुख रूपी भावनाओं के ज्वार-भाटे से प्रभावित होकर अत्यधिक दु:ख या अत्यधिक हर्ष की स्थिति में न पहुंच जाएं।

अक्सर ऐसी स्थिति में हम अत्यधिक की तरफ बढ़ जाते हैं। यानी जब हम दुखी होते हैं तो अत्यधिक दुखी होते हैं। इसी प्रकार जब हम सुखी होते हैं तो अत्यधिक सुखी होते हैं। यह अत्यधिक या बहुत ज्यादा का भाव हमारे लिए परेशानी का कारण बनता है। थोडे से अभ्यास से हम इस परेशानी से बच सकते हैं। निश्चित रूप से हमारे अंदर दु:ख और सुख का भाव उत्पन्न होगा ही। इससे नहीं बच सकते हैं।

लेकिन जब हम ऐसे भावों के अन्तर्गत उत्तेजित होने की स्थिति से बचे रहेंगे तो हमें अधिक समस्या का सामना नहीं करना पड़ेगा। दु:ख और सुख के समय जब हम उत्तेजित होते हैं तो ऐसे भावों की तीव्रता और बढ़ जाती है। इस उत्तेजना को कुछ प्रयासों के माध्यम से कम या खत्म किया जा सकता है।

इस कोशिश के द्वारा ऐसे समय में हम अपने व्यवहार को भी काफी हद तक सुधार सकते हैं। ऐसे समय यदि हमारा व्यवहार सहज होता है तो एक तरफ हमें स्वयं शांति मिलती है, दूसरी तरफ दूसरों के साथ हमारे संबंध भी कटु नहीं हो पाते हैं। जीवन में भावनाओं का ज्वार-भाटा निश्चित रूप से आएगा लेकिन इसका प्रभाव कैसे कम हो, यह तो हमें ही सोचना होगा।