अमेरिका जैसी महाशक्ति अगर मानवाधिकारों पर भारत को लेक्चर दे तो कोई बात नहीं लेकिन कतर जैसे देश भी आंखें दिखाने लगे तो इसमें कोई दोराय नहीं कि बात गंभीर है। नुपुर शर्मा मामले पर भारत की साख वैश्विक स्तर पर काफी कम हुई है। उस पर ये मामला अभी थमता नहीं दिख रहा। इस्लामिक देश एक के बाद एक करके नसीहत देते जा रहे हैं। हालांकि बीजेपी ने पूरे प्रकरण से अपना पल्ला झाड़ लिया है लेकिन डैमेज तो हो ही गया। साख पर तो असर पड़ ही गया है।

सबसे अहम चीज ये है कि कतर और कुवैत जैसे देश भी भारत सरकार से पैगंबर मोहम्मद के मामले में जवाब मांग रहे हैं। देखा जाए तो पूरे एपिशोड के पहले हाफ तक सरकार और बीजेपी ने चालाकी भरा खेल दिखाया। कानपुर हिंसा या फिर देश के भीतर उठे विरोध के स्वरों ने उसे कार्यवाही के लिए बाध्य नहीं किया। बीजेपी की एक राष्ट्रीय प्रवक्ता ने जब मुस्लिमों की भावनाओं को आहत करने वाला बयान दिया तो हफ्ते भर तक न तो सरकार की तरफ से कोई कदम उठाया गया और न ही पार्टी की तरफ से। जैसे ही कुछ अरब देशों ने आलोचना करनी शुरू की तो सरकार के साथ बीजेपी भी हरकत में आ गई। अपने प्रवक्ताओं को फ्रिंज एलिमेंट बताकर पल्ला झाड़ लिया।

लेकिन क्या कोई पार्टी प्रवक्ता फ्रिंज एलिमेंट हो सकता है? उन्होंने सोच समझकर तय रणनीति के तहत ही पैगंबर मोहम्मद पर आपत्तिजनक बयान दिया था। हालांकि ये पहली बार नहीं जब बीजेपी ने किसी मुद्दे पर अपने पैर वापस खींचे। सांसद तेजस्वी सूर्या के मामले में भी ऐसा ही हो चुका है लेकिन पार्टी में उसके बाद भी कोई सुधार होता नहीं दिखा पर इस बार जो झटका लगा है वो सोच से परे है। अंतरराष्ट्रीय संबंध जो दांव पर लग गए। उस पर भारत की छवि भी खराब होती जा रही है।

पूरे मामले को देखा जाए तो साफ है कि बीजेपी दोतरफा रणीति पर चल रही है। इस्लाम और अल्पसंख्यकों पर चौतरफा हमला करो। जीते तो हिंदुओं की जीत होगी। अगर किसी वजह से हार हो गई तो पीड़ित की शक्ल लेकर बैठ जाओ। इसमें भी पार्टी का फायदा है। ऐसा लग रहा है कि बीजेपी इस बेइज्जती को भी आने वाले समय में फायदे के लिए इस्तेमाल करेगी। कानपुर में जो हुआ उसमें बीजेपी का ही फायदा दिख रहा है। ऐसा लगता नहीं है कि बीजेपी अपने स्टैंड को बदलने जा रही है। आने वाले समय में ये बात साफ तौर पर दिख जाएगी।

इस बात को साबित करने की कोशिश होगी कि हिंदू देवी देवताओं की रक्षा करने कोई नहीं आया जबकि पैगंबर मोहम्मद के सम्मान को बचाने सारी दुनिया उमड़ पड़ी। लेकिन आखिर में हमें ये समझना ही होगा कि द्वेष से किसी को कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। इस्लामोफोबिया पर जब भी हमले हुए वो और ज्यादा मजबूत हुआ। रंगीला रसूल और चार्ली हेबेडो के मामलों से ये बात साफ तौर पर समझी जा सकती है। भारत को बोलने की आजादी और धार्मिक सद्भाव को तरजीह देनी होगी।