सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को सरकार से पूछा, “क्या राज्यपाल को किसी कानून (विधेयक) को हमेशा के लिए रोके रखने की अनुमति दी जा सकती है? अगर हां, तो क्या इसका मतलब यह नहीं होगा कि एक निर्वाचित सरकार हमेशा राज्यपाल की व्यक्तिगत पसंद या इच्छा पर निर्भर रहेगी?” दरअसल, अदालत को चिंता है कि अगर राज्यपाल किसी विधेयक को हमेशा के लिए रोक सकते हैं, तो जनता द्वारा चुनी गई सरकार की शक्ति कमजोर हो जाएगी और राज्यपाल का व्यक्तिगत निर्णय बहुत मजबूत हो जाएगा।

मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से सवाल किया, “लेकिन तब क्या हम राज्यपाल को अपीलों पर सुनवाई करने का पूरा अधिकार नहीं दे रहे होंगे?… बहुमत से चुनी गई सरकार राज्यपाल की इच्छा पर निर्भर हो जाएगी।” पीठ ने कहा कि अगर यह मान लिया जाए कि राज्यपाल द्वारा पहली बार रोकते ही कोई विधेयक “खत्म” हो जाता है, तो यह न तो राज्यपाल की शक्ति के लिए ठीक होगा और न ही पूरी कानून बनाने की प्रक्रिया के लिए।

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पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के उस संदर्भ (Presidential reference) पर सुनवाई कर रही है, जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों द्वारा राज्य विधानसभाओं से भेजे गए विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए समय-सीमा तय करने संबंधी दो न्यायाधीशों की पीठ के फैसले को स्पष्टीकरण हेतु रखा गया है।

अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों की व्याख्या करते हुए मेहता ने कहा, “यह सेवानिवृत्त नेताओं के लिए कोई शरणस्थली नहीं है, बल्कि इसकी अपनी पवित्रता है, जिस पर संविधान सभा में विस्तार से बहस हुई थी।” उन्होंने कहा कि राज्यपाल, भले ही निर्वाचित न हों, राष्ट्रपति का प्रतिनिधित्व करते हैं और वे महज विधेयकों पर यांत्रिक स्वीकृति देने वाले “डाकिया” नहीं हैं। उन्होंने जोड़ा, “जो व्यक्ति सीधे निर्वाचित नहीं होता, वह किसी भी तरह कमतर नहीं है।”

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न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी. एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए. एस. चंदुरकर की पीठ को संबोधित करते हुए मेहता ने कहा कि राज्यपाल के पास चार विकल्प होते हैं—विधेयक को स्वीकृति देना, उसे रोकना, यदि वह किसी केंद्रीय कानून से टकराता है तो राष्ट्रपति को भेजना, या फिर पुनर्विचार हेतु राज्य विधानमंडल को लौटाना। मेहता के अनुसार स्वीकृति रोकना कोई अस्थायी प्रक्रिया नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय की पांच और सात न्यायाधीशों वाली पीठें पहले ही इसकी व्याख्या कर चुकी हैं कि इस स्थिति में विधेयक “अस्वीकृत” माना जाएगा।

उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा, “मान लीजिए कोई सीमावर्ती राज्य विदेश मामलों से जुड़ा विधेयक पारित करता है और उसमें यह प्रावधान होता है कि हम किसी देश के लोगों को प्रवेश देंगे या नहीं। ऐसी स्थिति में राज्यपाल उसे मंज़ूरी नहीं दे सकते, न ही राष्ट्रपति को भेज सकते, क्योंकि यह असहमति का मामला नहीं है। और अगर सदन में उसे दोबारा भेजा जाए और वहाँ से फिर पारित हो जाए, तो उसे मना भी नहीं कर सकते। ऐसे में उन्हें विधेयक रोकना ही होगा। यह शक्ति बहुत कम और संयम से प्रयोग की जानी चाहिए, लेकिन संविधान ने इसे उपलब्ध कराया है।”

इस पर मुख्य न्यायाधीश ने पूछा, “अगर राज्यपाल विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस नहीं भेजते, तो क्या वे उसे हमेशा के लिए रोक सकते हैं?” मेहता ने जवाब दिया, “यह शक्ति समाप्त हो जाती है। इसे बहुत कम प्रयोग करना चाहिए, लेकिन विकल्प उन्हें दिया गया है। अनुच्छेद 200 की भाषा राज्यपाल को यह विकल्प प्रदान करती है।”

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उन्होंने आगे कहा, “ना तो शाब्दिक और ना ही संदर्भगत रूप से यह माना जा सकता है कि ‘रोकें’ शब्द केवल अस्थायी निलंबन के अर्थ में है। संविधान निर्माताओं ने ‘रोकें’ को अस्थायी स्वीकृति स्थगन के रूप में जोड़ना चाहा होता, तो मुख्य भाग में इसे स्पष्ट रूप से प्रथम परंतुक से जोड़ा जाता। साथ ही, यह भी लिखा जाता कि ऐसे रोके गए विधेयक पर सदन पुनर्विचार करेगा। लेकिन ऐसा कहीं नहीं है।”

न्यायमूर्ति नरसिम्हा ने टिप्पणी की, “विकल्प खुले रहने चाहिए ताकि राजनीतिक प्रक्रिया को गतिरोध सुलझाने का अवसर मिल सके। मान लीजिए राज्यपाल कहते हैं कि मैं रोक रहा हूं, तब भी राजनीतिक प्रक्रिया उनके पास पहुंच सकती है और वे बाद में इसे पुनर्विचार हेतु लौटा सकते हैं। यह कहना कि पहली बार रोकने पर मामला समाप्त हो गया, न राज्यपाल की शक्ति के अनुकूल है, न ही विधायी प्रक्रिया के।”

उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि अदालत समझ रही है कि सॉलिसिटर जनरल संघ सूची के विषयों से जुड़े विधेयकों का उदाहरण दे रहे हैं। राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों पर बहस करते हुए न्यायमूर्ति नरसिम्हा ने कहा, “संविधान सभा के समय हमारे पास विधेयकों के प्रभाव का कोई आकलन तंत्र नहीं था। आज देखा जा सकता है कि इस प्रकार के प्रावधानों के चलते कितनी मुकदमेबाज़ी हुई है। इससे यह आकलन करना संभव है कि उस समय का दृष्टिकोण कितना सही था, क्योंकि किसी विचार की वैधता उसके क्रियान्वयन से ही आंकी जाती है।”

मेहता ने स्पष्ट किया कि वे “यह तर्क नहीं दे रहे कि राज्यपाल के पास असीमित विवेकाधिकार है।” मुख्य न्यायाधीश गवई ने कहा, “हमारे पास अनुभव है कि कुछ माननीय राज्यपालों ने अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल जिस तरह किया, उससे मुकदमेबाज़ी बढ़ी। लेकिन हम उस पर भरोसा नहीं कर रहे हैं।”

मेहता ने अंत में कहा, “भारतीय लोकतंत्र एक परिपक्व लोकतंत्र है। व्यक्तिगत स्तर पर विसंगतियां हो सकती हैं, लेकिन कुल मिलाकर संविधान के तहत लोकतंत्र प्रभावी ढंग से काम करता आया है। कोविड के दौरान मैंने स्वयं अनुभव किया कि किस प्रकार केंद्र और राज्यों के बीच संघीय संतुलन परिकल्पित रूप में सामने आया। इसलिए कुछ विसंगतियों के आधार पर पूरे ढांचे को आंकना खतरनाक होगा।”