कांग्रेस को जब से मल्लिकार्जुन खड़गे के रूप में नया अध्यक्ष मिला है, देश की सबसे पुरानी पार्टी का मिजाज बदला-बदला सा है। जो पार्टी पहले अपने अंदरूनी कलहों को शांत करने में फेल मानी जा रही थी, खड़गे के अनुभव ने सबकुछ बदल दिया है। किसने सोचा था कर्नाटक में पहले सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार को साथ लाया जाएगा, फिर बाद में सीएम पद को लेकर भी समझौता सटीक साबित होगा। राजस्थान में जो सचिन पायलट अपनी पार्टी बनाने की सोच रहे थे, अचानक से शांत कैसे पड़ गए और अब छत्तीसगढ़ में टीएस सिंह देव को डिप्टी सीएम की लॉलीपॉप देना काफी कुछ बता रहा है।
छत्तीसगढ़ में चुनाव कुछ महीने दूर है, मान सकते हैं कि इस साल नवंबर-दिसंबर में शंखनाद हो जाए। उस चुनाव में कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती सीएम भूपेश सिंह बघेल और टीएस सिंह देव को साथ रखना है। ये नहीं भूला जा सकता कि कुछ महीने पहले ही एक बयान में टीएस कह चुके थे कि वे जल्द अपना फैसला सुनाने वाले हैं। ये फैसला ‘बगावती’ तेवर वाला था। ढाई साल बाद मुख्यमंत्री बनाने का जो वादा हुआ, वो सिर्फ कागज तक सीमित रह गया। इसके ऊपर छत्तीसगढ़ से अनबन की खबरों ने भी काफी कुछ बता दिया था। लेकिन मल्लिकार्जुन खड़गे और उनका अनुभव जानता है कि जब तक एकजुट होकर चुनावी मैदान में नहीं उतरा जाएगा, मजबूत से मजबूत राज्य में भी डगर मुश्किल साबित होगी।
राहुल और खड़गे की कार्यशैली का फर्क
वैसे यही राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे की कार्यशैली में एक बड़ा फर्क सामने आ रहा है। जब तक राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष थे, ओल्ड बनाम यंग गार्ड की लड़ाई जगजाहिर थी, कह सकते हैं ये खाई काफी बढ़ भी गई थी। पंजाब समेत कई राज्यों में जब पार्टी की लगातार हार हो रही थी, एक चीज स्पष्ट थी, कांग्रेस अपनी अंदरूनी कलहों को समय रहते खत्म नहीं कर पा रही थी। इसका खामियाजा पंजाब में चुकाया गया, गुजरात में सूपड़ा साफ हुआ, उत्तराखंड में ट्रेड तोड़ते हुए बीजेपी ने सत्ता में वापसी की और गोवा में भी फिर सरकार बनाने में कामयाब रही।
लेकिन अब जब कमान मल्लिकार्जुन खड़गे के हाथ में आई है, उन्होंने एक सटीक तालमेल बैठाने का काम किया है। अभी उन्हें अध्यक्ष कुर्सी संभाले 250 से कुछ दिन ही ज्यादा हुए हैं, लेकिन उनकी एक रणनीति साफ दिख रही है। वे चुनावी जीत से पहले इस बात पर जोर दे रहे हैं कि पार्टी के अंदर जारी गुटबाजी को खत्म किया जाए। अगर खत्म ना भी किया जाए तो कम से कम चुनाव तक उसे कंट्रोल में रखा जाए। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हाल ही में संपन्न हुए कर्नाटक चुनाव में देखने को मिल गया था।
खड़गे का अनुभव और शांत होती बगावत
कर्नाटक में डीके शिवकुमार और सिद्धारमैया की सियासी लड़ाई किसी से नहीं छिपी। दोनों सीएम बनने की महत्वाकांक्षा रखते थे, दोनों ने पार्टी के अंदर अपने गुट बना रखे थे, राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा के दौरान मनाने की कोशिश भी की, लेकिन रंग शायद खड़गे का अनुभव ही लाया। उनका संदेश साफ था मिल बैठकर विवाद सुलझाया जाए और जनता के सामने एकजुटता का ही संदेश जाए। इसी वजह से जो डीके और जो सिद्धारमैया एक दूसरे पर कटाक्षों की बौछार किया करते थे, चुनावी मौसम में ऐसे साथ आए कि विरोधियों को भी उस तल्खी का फायदा उठाने का कोई मौका नहीं मिला। नतीजा ये रहा कि कांग्रेस ने एक अप्रत्याशित जीत दर्ज की, ऐसा बहुमत हासिल किया जो उसे सरकार चलाने में काफी सहूलियत देगा।
अब बात राजस्थान की करते हैं जहां पर कहा जा रहा था कि जून में तो सचिन पायलट बड़ा खेल करते हुए अपनी नई पार्टी बना लेंगे, ये भी खबर थी कि प्रशांत किशोर ने उनकी उस नई पार्टी का सारा रोडमैप तैयार किया। यानी कि चुनावी मौसम में सियासी खेला करने की पूरी तैयारी थी, गहलोत भी कोई नरम नहीं पड़े थे, लेकिन खड़गे की लगातार हुई बैठकों ने दो काम किए। एक हाईकमान के साथ पायलट का फिर संवाद स्थापित हुआ, दूसरा ये कि सीएम गहलोत की लगातार जारी बयानबाजी पर भी अंकुश लगा। अब माना जा रहा है कि तीन जुलाई को होने वाली राजस्थान बैठक में सचिन पायलट को ‘उचित सम्मान’ दिया जा सकता है।
टीएस सिंह को कैसे मनाया, क्यों जरूरी?
अब कर्नाटक और राजस्थान की केस स्टडी बताती है कि मल्लिकार्जुन खड़के गुटबाजी के बीच तालमेल बैठाने में चैंपियन हैं। इसी वजह से छत्तीसगढ़ में भी उन्होंने उन टीएस सिंह देव को डिप्टी सीएम का पद दिया है, जो कुछ समय पहले तक अपनी बघेल सरकार पर ही हमलावर थे, यहां तक कह रहे थे कि वे कोई फैसला लेने वाले हैं। अब डिप्टी सीएम बनने के बाद वे संतुष्ट हैं। सीएम की कुर्सी तो नहीं मिली, लेकिन माना जा रहा है कि खड़गे की अगुवाई की उस बैठक में इतने आश्वासन जरूर दे दिए गए हैं कि चुनाव तक बगावती तेवर अब सामने ना आए।
अब छत्तीसगढ़ में टीएस सिंह देव को ज्यादा देर तक नाराज रखना कांग्रेस की सेहत के लिए अच्छा नहीं। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को साल 2018 में जो 68 सीटें मिली थी, उसमें एक बड़ी भूमिका पार्टी के उस घोषणा पत्र की थी जिसकी सारी रूपरेखा टीएस सिंह देव ने ही तैयार की थी। इसके ऊपर जिस सरगुजा राजपरिवार से टीएस नाता रखते हैं, छत्तीसगढ़ की राजनीति में उसकी अपनी अहमियत है। ऐसे में डिप्टी सीएम का ये पद किसी को खुश करने से ज्यादा डैमेज कंट्रोल का प्रयास है।
असल में टीएस सिंह देव की तरफ से कई मौकों पर बताया गया था कि उनकी सरकार में ही उनकी सुनी नहीं जाती। यहां तक खबरें आई थीं कि ऐसी फाइलें रहीं जिन्हें ऊपर से कभी मंजूरी नहीं मिली। इसके ऊपर एक समय जिन टीएस देव के पास 50 से ज्यादा विधायकों का समर्थन था, एक समय में आकर वो संख्या पांच से दस पर सिमट गई। यानी कि सीएम के सपने देखने वाले टीएस सिंह देव सियासी हाशिए पर आने लगे थे। कुछ दिन पहले तो उनकी बीजेपी नेताओं से भी मुलाकात हो गई थी, यानी कि कुछ भी हो सकता था। लेकिन शायद मल्लिकार्जुन खड़गे ठीक समय पर स्थिति को भाप लिया, ऐसे में तुरंत बैठक हुई, राहुल गांधी मौजूद रहे, छत्तीसगढ़ इंनचार्ज आए और टीएस डिप्टी सीएम वाली लॉलीपॉप थमा दी गई। अभी के लिए छत्तीसगढ़ का मामला शांत बताया जा रहा है।
खड़गे सिर्फ हिट नहीं, एक बड़ी चुनौती
अब कर्नाटक, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में लिए गए एक्शनों ने मल्लिकार्जुन खड़गे की सियासी साख को काफी बढ़ा दिया है। लेकिन एक चुनौती अभी भी चट्टान की तरह उनके सामने खड़ी है। कांग्रेस की CWC की नई टीम का गठन अभी तक नहीं हो पाया है। पार्टी का हर बड़ा फैसला, हर चुनावी रणनीति को फाइनल टच इसी समिति द्वारा दिया जाता है। इसके ऊपर इस बार क्योंकि कई नए चेहरों को मौका मिल सकता है, ऐसे में भी ये नई टीम का गठन होना मायने रखता है। कांग्रेस का जी 23 गुट अभी भी नाराज ही चल रहा है, कई नेता तो पार्टी तक छोड़ चुके हैं, ऐसे में किसे कितना सम्मान दिया जा सकता है, इसका फैसला CWC गठन से ही होगा। लेकिन अभी तक कई कारणों से ऐसा हो नहीं पाया, ये खड़गे के लिए एक बड़ी सिरदर्दी साबित हो सकता है।