योगेश कुमार गोयल
बड़े पैमाने पर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से मरुस्थलीकरण अर्थात उपजाऊ जमीन के बंजर बन जाने की समस्या विकराल हो रही है। सूखे इलाकों में जब लोग पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों का जरूरत से ज्यादा दोहन करते हैं तो वहां पेड़-पौधे खत्म हो जाते हैं और उस क्षेत्र की जमीन बंजर हो जाती है। अंतरराष्ट्रीय सहयोग से वैश्विक स्तर पर मरुस्थलीकरण का मुकाबला करने के लिए जन जागरूकता को बढ़ावा दिया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष 1994 में मरुस्थलीकरण रोकथाम का प्रस्ताव रखा था। भारत ने उस पर 14 अक्तूबर 1994 को हस्ताक्षर किए।
आने वाले दिनों में मरुस्थलीकरण कितनी बड़ी समस्या बनकर सामने आ सकता है, यह संयुक्त राष्ट्र के इस अनुमान से भली-भांति समझा जा सकता है कि वर्ष 2025 तक दुनिया के दो-तिहाई लोग जल संकट की परिस्थितियों में रहने को विवश होंगे, जिससे मरुस्थलीकरण के चलते विस्थापन बढ़ेगा और आगामी 25 वर्षों में तेरह करोड़ से भी ज्यादा लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ सकता है।
संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक विश्वभर के कुल क्षेत्रफल का करीब बीस फीसद भूभाग मरुस्थलीय भूमि के रूप में है जबकि वैश्विक क्षेत्रफल का करीब एक तिहाई भाग सूखाग्रस्त भूमि के रूप में है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार गहन खेती के कारण 1980 से अब तक धरती की एक-चौथाई उपजाऊ भूमि नष्ट हो चुकी है और दुनियाभर में रेगिस्तान का दायरा निरंतर विस्तृत हो रहा है। इस कारण आने वाले समय में अन्न की कमी हो सकती है।
विश्वभर में करीब 130 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि मानवीय क्रियाकलापों के कारण रेगिस्तान में बदल चुकी है। प्रति मिनट करीब 23 हेक्टेयर उपजाऊ भूमि बंजर भूमि में तब्दील हो रही है। इस कारण खाद्यान्न उत्पादन में प्रतिवर्ष दो करोड़ टन की कमी आ रही है। दुनिया के दो-तिहाई हिस्से में भूक्षरण की समस्या गंभीर हो गई है। इस कारण कृषि उत्पादन पर नकारात्मक असर पड़ ही रहा है, सूखे तथा प्रदूषण की चुनौती भी बढ़ रही है।
भूमि में प्राकृतिक कारणों अथवा मानवीय गतिविधियों के कारण जैविक या आर्थिक उत्पादकता में कमी की स्थिति को भूक्षरण कहा जाता है। जब यह अपेक्षाकृत सूखे क्षेत्रों में घटित होता है, तब इसे मरुस्थलीकरण कहा जाता है। दरअसल इस समय पूरी दुनिया में धरती पर सिर्फ 30 फीसद हिस्से में ही वन शेष बचे हैं और उसमें से भी प्रतिवर्ष इंग्लैंड के आकार के बराबर हर साल नष्ट हो रहे हैं। दुनियाभर में लोगों के लिए खाने-पीने की समुचित उपलब्धता बनाए रखने की खातिर भूक्षरण रोकना और नष्ट हुई उर्वर भूमि को उपजाऊ बनाना आवश्यक है।
चीन अपने एक बहुत बड़े रेगिस्तान को तीन दशकों में हरे-भरे मैदान में तब्दील कर दुनिया के सामने मिसाल पेश कर चुका है। चीन का कुबुकी नामक रेगिस्तान बंजर जमीन और निर्धनता का अभिशाप झेलते हुए कभी अपने ही देश में बिल्कुल अलग-थलग पड़ा था। मंगोलिया के भीतरी हिस्से में पड़ने वाला यह रेगिस्तान दुनिया का सातवां सबसे बड़ा रेगिस्तान है और अक्सर पूरे चीन में रेत के तूफान का बड़ा कारण बनता रहा था।
वर्ष 1988 में वहां की एक कंपनी ‘एलिओन रिसोर्सेज’ ने जब सरकार और स्थानीय लोगों के सहयोग से यहां की बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने के लिए यहां विशेष प्रकार के पौधे लगाने शुरू किए तो इस रेगिस्तान की सूरत बदलने लगी। तीन दशकों के बाद आज स्थिति यह है कि यही रेगिस्तान अब होटल, पर्यटन समेत विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रों में विश्वभर में अपनी अलग पहचान बना रहा है। यह रेगिस्तान अब दुनिया का सबसे बड़ा सौर ऊर्जा केंद्र बन चुका है, जिसमें लगे साढ़े छह लाख सोलर पैनल से चीन को हजारों मैगावाट बिजली प्राप्त हो रही है।
जहां तक भारत का सवाल है, यहां मरुस्थलीकरण बड़ी समस्या बनता जा रहा है। मरू क्षेत्र विस्तार, भूक्षरण और सूखे पर आयोजित संयुक्त राष्ट्र के एक उच्चस्तरीय संवाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बताया था कि भारत अगस्त 2030 तक 2.6 करोड़ हेक्टेयर क्षरित भूमि को उपजाऊ बनाने की दिशा में अग्रसर है, जिससे ढाई से तीन अरब टन कार्बन डाईआक्साइड के बराबर कार्बन अवशोषित किया जा सकेगा।
भूक्षरण से फिलहाल भारत की करीब 30 फीसद भूमि प्रभावित है, जो बेहद चिंताजनक है। पर्यावरण क्षति की भरपाई के प्रयासों के तहत पिछले एक दशक में करीब 30 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र का विस्तार किया गया है।
भारत ने जून 2019 में परीक्षण के तौर पर पांच राज्यों – हरियाणा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, नगालैंड, कर्नाटक में वनाच्छदित क्षेत्र बढ़ाने की परियोजना शुरू की थी और अब इस परियोजना को धीरे-धीरे मरुस्थलीकरण से प्रभावित अन्य क्षेत्रों में भी लागू किया जा रहा है। वर्ष 2016 में प्रकाशित भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि देशभर में 9.64 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में मरुस्थलीकरण हो रहा है, जो भारत के कुल भूमि क्षेत्र का करीब 30 फीसद हिस्सा है। इस क्षरित भूमि का 80 फीसद हिस्सा केवल नौ राज्यों- राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक, झारखंड, ओड़ीसा, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में है।
दिल्ली, त्रिपुरा, नागालैंड, हिमाचल प्रदेश और मिजोरम में मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया काफी तेज है। झारखंड, राजस्थान, दिल्ली, गुजरात और गोवा के तो 50 फीसद से भी अधिक भौगोलिक क्षेत्र में क्षरण हो रहा है।
भारत का करीब 70 फीसद जमीनी इलाका अपेक्षाकृत सूखा क्षेत्र है। भारत में वायु प्रदूषण का स्तर बढ़ाने में भी मरुस्थलीकरण की बड़ी भूमिका है, जिसके कारण लोगों के स्वास्थ्य और कार्य पर बुरा असर पड़ रहा है। इसके चलते लोगों में सांस, फेफड़े, सिरदर्द इत्यादि विभिन्न समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं।
‘सेंटर फार साइंस एंड एनवायरनमेंट’ (सीएसई) की एक रपट में बताया गया है कि वर्ष 2003-05 से 2011-13 के बीच ही भारत में मरुस्थलीकरण काफी बड़े क्षेत्र तक बढ़ चुका था और सूखा प्रभावित 78 में से 21 जिले तो ऐसे हैं, जिनका 50 फीसद से भी ज्यादा क्षेत्र मरुस्थलीकरण में तब्दील हो चुका है। देश के थार मरुस्थल ने उत्तर भारत के मैदानों को सर्वाधिक प्रभावित किया है। चिंताजनक स्थिति यह है कि थार के मरुस्थल में प्रतिवर्ष तेरह हजार एकड़ से भी अधिक बंजर भूमि की वृद्धि हो रही है।
भारत में केंद्र सरकार द्वारा देहरादून स्थित वन अनुसंधान संस्थान में उत्कृष्ट शोध केंद्र की स्थापना कर भूमि को बंजर होने से बचाने का शोध कार्य शुरू किए जाने की घोषणा कुछ वर्ष पूर्व हो चुकी है। भारत ने वर्ष 2020 से 2030 के बीच 50 लाख हेक्टेयर बंजर भूमि को कृषि योग्य बनाने की भी घोषणा की थी।
देश में बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए भले ही सरकारी स्तर पर कई प्रयास शुरू किए गए हैं, लेकिन इसके साथ वन क्षेत्रों में विस्तार के गंभीर प्रयासों की भी सख्त जरूरत है। हमारी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित और समृद्ध बनाने के लिए भूमि के संरक्षण के साथ हमें भूजल दोहन, अनियोजित नगरीकरण तथा हर प्रकार के प्रदूषण को भी रोकना ही होगा।
