आमतौर पर नई लोकसभा के गठन के समय समितियों का गठन होता है और सत्ता पक्ष व विपक्षी पार्टियों के संख्या बल के हिसाब से संसदीय समितियों की अध्यक्षता का बंटवारा होता है। इस बार लोकसभा का कार्यकाल खत्म होने से डेढ़ साल पहले संसद की स्थायी समितियों का नए सिरे से बंटवारा किया गया है।
शीर्ष चार मंत्रालयों- विदेश, वित्त, गृह और रक्षा मंत्रालय से जुड़ी स्थायी समितियों की अध्यक्षता अब भाजपा के पास है। इन समितियों की अध्यक्षता पहले कांग्रेस के पास थी। कांग्रेस के पास दोनों सदनों में 83 सांसद हैं, इसके बावजूद उसे सिर्फ एक वन व पर्यावरण की कमेटी मिली है। दोनों सदनों में 36 सांसदों वाली दूसरी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को एक भी संसदीय समिति की अध्यक्षता नहीं मिली है। इसके अलावा स्थायी समितियों की संख्या को भी कम कर दिया गया है। अब 24 के बजाय सिर्फ 22 स्थायी समितियां होंगी। इनमें लोकसभा की 15 और राज्यसभा की सात समितियां रहेंगी।
क्या होती हैं संसदीय समितियां
संसद के मुख्य रूप से दो काम होते हैं। पहला कानून बनाना और दूसरा सरकार की कार्यात्मक शाखा का निरीक्षण करना। संसद के इन्ही कार्यों को प्रभावी ढंग से पूरा करने के लिए संसदीय समितियों को एक माध्यम के तौर पर प्रयोग किया जाता है।सैद्धांतिक तौर पर धारणा यह है कि संसदीय स्थायी समितियों में अलग-अलग दलों के सांसदों के छोटे-छोटे समूह होते हैं, जिन्हें उनकी व्यक्तिगत रुचि और विशेषता के आधार पर बांटा जाता है, ताकि वे किसी विशिष्ट विषय पर विचार-विमर्श कर सकें।
भारतीय संसदीय प्रणाली की अधिकतर प्रथाएं ब्रिटिश संसद की देन हैं और संसदीय समितियों के गठन का विचार भी वहीं से आया है। विश्व की पहली संसदीय समिति का गठन वर्ष 1571 में ब्रिटेन में किया गया था। भारत में पहली लोक लेखा समिति का गठन अप्रैल 1950 में किया गया था। संसदीय समिति के समक्ष उपस्थित होने का निमंत्रण अदालत के समन के समान है। यदि कोई नहीं आ सकता है, तो उसे कारण बताना होगा, जिसे पैनल स्वीकार कर सकता है या नहीं भी कर सकता है। हालांकि, अध्यक्ष को गवाह को बुलाने के लिए सदस्यों के बहुमत का समर्थन होना चाहिए।
क्या है स्वरूप
संसदीय समितियां दो तरह की होती हैं। स्थायी और तदर्थ। स्थायी समितियों का कार्य सामान्यत: निरंतर चलता रहता है। इस प्रकार की समितियों का पुनर्गठन वार्षिक आधार पर किया जाता है। इनमें शामिल कुछ प्रमुख समितियां इस प्रकार हैं – लोक लेखा समिति, प्राक्कलन समिति, सार्वजनिक उपक्रम समिति, अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति समुदाय के कल्याण संबंधी समिति, कार्यमंत्रणा समिति, विशेषाधिकार समिति और विभागीय समिति। तदर्थ या अस्थायी समितियों का गठन किसी एक विशेष उद्देश्य के लिए किया जाता है।
अस्थायी समितियां दो तरह की होती हैं- जांच समितियां (इनका गठन किसी तत्कालीन घटना की जांच करने के लिए किया जाता है) और सलाहकार समितियां (इनका निर्माण किसी विशेष विधेयक पर चर्चा करने के लिए किया जाता है)। रेलवे कन्वेंशन कमेटी, संसद भवन परिसर में खाद्य प्रबंधन और सुरक्षा समिति आदि जैसी समितियां भी तदर्थ समितियों की श्रेणी में आती हैं।
संसद किसी विषय या बिल की विस्तृत जांच के लिए दोनों सदनों के सदस्यों के साथ एक विशेष उद्देश्य के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) का गठन भी कर सकती है। साथ ही, दोनों सदनों में से कोई भी अपने सदस्यों के साथ एक प्रवर समिति भी बना सकती है। जेपीसी और प्रवर समितियों की अध्यक्षता आमतौर पर सत्ताधारी पार्टी के सांसद करते हैं, और रिपोर्ट जमा करने के बाद उन्हें भंग कर दिया जाता है।
क्यों है जरूरत
संसद की प्रत्येक विभागीय समिति में अधिकतम 31 सदस्य होते हैं, जिसमें से 21 सदस्यों का मनोनयन स्पीकर द्वारा एवं 10 सदस्यों का मनोनयन राज्यसभा के सभापति द्वारा किया जा सकता है। इन समितियों का मुख्य कार्य अनुदान संबंधी मांगों की जांच करना एवं उन मांगों के संबंध में अपनी रिपोर्ट सौंपना होता है।
संसद में कामकाज की अधिकता को देखते हुए वहां प्रस्तुत सभी विधेयकों पर विस्तृत चर्चा करना संभव नहीं हो पाता, लिहाजा संसदीय समितियों का एक मंच के रूप में प्रयोग किया जाता है, जहां प्रस्तावित कानूनों पर चर्चा की जाती है। वित्तीय समितियों में प्राक्कलन समिति, लोक लेखा समिति और सार्वजनिक उपक्रम समिति शामिल हैं।
इन समितियों का गठन 1950 में किया गया था। जब शिवराज पाटिल लोकसभा के अध्यक्ष थे, तब बजटीय प्रस्तावों और महत्त्वपूर्ण सरकारी नीतियों की जांच करने के लिए 1993 में विभागीय रूप से संबंधित स्थायी समितियां अस्तित्व में आईं।
संसदीय समितियों में चर्चा
किसी विधेयक पर बोलने का समय सदन में पार्टी के आकार के अनुसार मिलता है। सांसदों को अक्सर संसद में अपने विचार रखने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता है, भले ही वे इस विषय के विशेषज्ञ हों। समितियां छोटे समूह हैं, जिनके समय पर अपेक्षाकृत कम मांग होती है। इन बैठकों में प्रत्येक सांसद को चर्चा में योगदान देने का मौका और समय मिलता है। संसद में एक वर्ष में केवल लगभग 100 बैठकें होती हैं, जबकि समिति की बैठकें संसद के कैलेंडर से अलग होती हैं। चर्चा गोपनीय और बंद कमरे में होती है, इसलिए पार्टी संबद्धता आमतौर पर सांसदों के मन की बात कहने के रास्ते में नहीं आती। लिहाजा, कई सांसद मानते हैं कि समितियों के अंदर वास्तविक चर्चा होती है।
क्या कहते हैं जानकार
संसद में व्यवधानों के चलते इतना समय नष्ट हो जाता है कि विधायी प्रक्रिया विलंबित हो जाती है। ऐसे में विधेयकों को स्थायी समितियों को सौंपने से इस कार्य में अधिक विलंब हो सकता है। सवाल है कि क्या ये समितियां अपने निर्दिष्ट उद्देश्यों को प्राप्त करने में सक्षम हैं।
- देश दीपक वर्मा, राज्यसभा के पूर्व महासचिव
- संसद में कोई चर्चा नहीं हो रही, संसद की स्थायी समितियों की बैठक में कोई चर्चा नहीं होती. इस तरह से मोदी काल में विधेयकों को मनमाने ढंग से पारित कराया जाता है। संसदीय परंपराओं को ताक पर रखा जा रहा है। विपक्ष से समितियां छीनी जा रही हैं।
- केसी वेणुगोपाल, कांग्रेस नेता