भारत का महत्वाकांक्षी चंद्रयान 3 मिशन कल यानी कि 14 जुलाई अपना सफर शुरू करने जा रहा है। दोपहर ढाई बजे श्रीहरिकोटा से रॉकेट को लॉन्च कर दिया जाएगा। अब चांद पर ये कोई पहला मिशन नहीं है, कई देश कई मौकों पर चांद तक की दूरी तय कर चुके हैं। लेकिन कितनों की सफल लैंडिंग हुई? कितने मिशन खुद को 100 फीसदी सफल बता सकते हैं? यहीं दो वो सवाल हैं जो चंद्रयान 3 के सामने बड़ी चुनौती है।
असल में साइंस ने तरक्की तो काफी कर ली है, वैज्ञानिकों ने स्पेस रिसर्च में अलग ही क्रांति की है, लेकिन फिर भी चांद का वातावरण, वहां का बदला माहौल सभी कैलकुलेशन को कई बार फेल कर जाता है। इसी वजह से भारत का चंद्रयान 2 मिशन भी फेल हुआ था। ऐन वक्त पर विक्रम चांद की धरती पर सीधे क्रैश कर गया था। अब ये तो बस एक उदाहरण था, लेकिन कारण कई है जिस वजह से इतने सालों बाद भी कहा जाता है- सही मायनों में चंदा मामा दूर के
चांद की दूरी सबसे बड़ी चुनौती
चांद पर लैंड करना तो काफी बाद की बात है, पहले वहां तक पहुंचना ही बड़ी बात है। असल में धरती से चांद की दूरी 3,84,400 किलोमीटर बैठती है। यानी कि वैज्ञानिकों को सिर्फ चांद पर लैंडिंग की तैयारी नहीं करनी होती, बल्कि इस तरह से रॉकेट को डिजाइन करना होता है कि वो 3,84,400 किलोमीटर का सफर भी तय कर सके क्योंकि चूक तो पूरे रास्ते में कहीं भी हो सकती है।
फुल स्पीड में रॉकेट, चांद पर रफ्तार कम कैसे?
चांद पर पहुंचने के लिए रॉकेट को फुल स्पीड में आगे बढ़ना होता है, लेकिन जब करीब पहुंच जाते हैं, तब उस स्पीड को कंट्रोल कैसे किया जाए, ये एक बड़ी चुनौती बन जाता है। असल में जब कोई रॉकेट धरती पर वापस आता है, तब वहां का वातावरण घना रहता है, ऐसे में इतना फ्रिक्शन मिल जाता है कि रॉकेट की रफ्तार कम हो जाए। लेकिन इसके उलट वातावरण चांद पर रहता है, ऐसे में रफ्तार कैसे कम की जाए, ये बड़ा सवाल बन जाता है। चांद पर काफी थिन एटमॉसफेयर रहती है, ऐसे में वहां पर कम रफ्तार सिर्फ propulsion system की मदद से की जा सकती है।
अब ये propulsion system भी ठीक तरह से तब काम करेगा, जब फ्यूल उतना ही ज्यादा साथ रहे। बड़ी बात ये है कि जब ज्यादा फ्यूल साथ ले जाया जाएगा, इसका मतलब स्पेसक्राफ्ट उतना ही भारी होगा।
कोई GPS नहीं लोकेशन ट्रैक करना मुश्किल
आम जीवन एक जगह से दूसरी जगह जाना हो तो आसानी से जीपीएस पर एड्रेस डाल पहुंचा जा सकता है। लेकिन जब सफर चांद तक का तय करना हो, तब ये जीपीएस काम नहीं आता। ऐसे में वैज्ञानिकों के हाथ में जो कंप्यूटर होते हैं, उसी से सारी कैलकुलेशन करनी होती है। वहां भी जब चांद पर लैंडिंग का टाइम आता है, उस समय तो ये बारीक कैलकुलेशन ही मायने रखती है। अगर गलत हो जाए तो मिशन फेल, सही निकल जाए तो इतिहास रच दिया जाता है।