अपनी सेवाओं की खराब गुणवत्ता पर ‘पर्दा डालने’ के लिए दूरसंचार कंपनियों ने अब एक नई तकनीक का सहारा लिया है। इसके तहत किसी कॉल के दौरान कनेक्शन टूटने या दूसरी तरफ से आवाज सुनाई नहीं देने की स्थिति में भी कॉल कनेक्टेड दिखती है। इससे पहले अगर दूरसंचार उपभोेक्ता खराब नेटवर्क वाले इलाके में जाता था तो कॉल अपने आप ही कट जाती थी और मौजूदा नियामकीय ढांचे के तहत यह ‘ड्राप कॉल’ के रूप में दर्ज होता।

नई तकनीक से दूरसंचार कंपनियों को यह फायदा होता है कि कॉल खुद-ब-खुद कट जाने के बाद भी उपभोक्ता को वह कृत्रिम रूप से कनेक्टेड दिखती है। वह कॉल तब तक नहीं कटती जब तक कि उपभोक्ता खुद इसे काटने का फैसला नहीं कर ले। इस तरह इस तकनीक के जरिए उपभोक्ता से कॉल के पूरे समय का पैसा वसूल करती हैं कंपनियां, भले ही उपभोक्ता इस दौरान बात नहीं कर पाया हो। दूरसंचार नेटवर्क की जांच से जुड़े एक सरकारी सूत्र ने कहा कि रेडियो-लिंक तकनीक (आरएलटी) का इस्तेमाल कर रही हैं दूरसंचार कंपनियां। इससे इन कंपनियों को अपने कॉल ड्राप के दोष को ढंकने का रास्ता तो मिलता ही है, बल्कि वह अपने दोष के लिए जुर्माना देने के बजाए उपभोक्ता से उस वक्त का भी शुल्क वसूल कर लेती हैं जब वह कंपनियों की कमी की वजह से बात नहीं कर पाता। रेडियो-लिंक तकनीक ग्राहक को कृत्रिम नेटवर्क से जोड़े रखने का काम करती हैं।

सूत्रों ने कहा कि ऐसे मामलों में ग्राहक अपने आप फोन काट देता है जिसे कॉल ड्राप नहीं माना जाता है। यदि ऐसे मामलों में कॉल कटती जाती है तो कंपनी ग्राहक से शुल्क वसूली जारी रखती है। इस तरह कंपनियों को अपनी सेवा के दोष छुपाने और आय बढ़ाने में मदद कर रही है आरएलटी। उद्योग के संगठन सीओएआइ और आॅस्पी से इस मामले में भेजे गए सवालों पर कोई जवाब नहीं मिला।

भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने कॉल ड्रॉप समेत खराब मोबाइल सेवा के लिए दो लाख रुपए तक का दंड तय किया है। कॉल ड्राप पर जुर्माना दूरसंचार सर्कल में कुल ट्रैफिक के दो फीसद से अधिक तिमाही औसत के आधार पर लगाया जाता है। हाल में सुप्रीम कोर्ट ने ट्राई के उन नियमों को खारिज कर दिया जिसके तहत दूरसंचार परिचालकों को प्रति कॉल ड्रॉप एक रुपया और एक ग्राहक को रोजाना अधिकतम तीन रुपए के भुगतान का निर्देश दिया था।

कॉल ड्राप का मुद्दा हाल में काफी विवाद में रहा है और इसको लेकर दूरसंचार कंपनियों को काफी आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। वहीं कंपनियों का कहना है कि इसके लिए मोबाइल टावर स्थापित करने में मंजूरी का अभाव सहित अनेक कारक जिम्मेदार हैं।